मन की बात
मन की करता हूँ मैं, बस अपने ही मन की सुनता हूँ ,
धुन में अपनी मस्त हूँ हरदम ,इसीलिए तो चुप रहता हूँ,
बात बात में बात बड़ाना , कभी न मेरे मन को भाया ,
लाल पीली नज़रों से देखना ,कभी न इन आँखों ने चाहा,
जब भी कोई प्यार से बोले ,मैं उसके दिल की सुनता हूँ,
यहाँ वहां की बातें सुन कर, द्वेष के जाल नहीं बुनता हूँ,
प्रकृति ने जब दिया है सब कुछ, फिर क्यों आगे हाथ फैलाऊं
काम करूँ मेहनत से हमेशा सदा अपने मेहनत की रोटी खाऊँ,
शब्दों में इतना प्यार भरा हो , जब भी बोलूँ मीठा बोलूँ,
भाग्य में मेरे जो भी आये, सच के तराजू पर ही तोलूँ,
टिक न पाये दुश्मन कोई, इतना मुझको समर्थ बना दो,
याद आपको को सदा करूँ मैं, इतना साईं उपकार करा दो,
~ जय प्रकाश भाटिया
वाह्ह्ह्ह्ह लाजवाब सृजन के लिए बधाई आदरणीय
प्रिय जय प्रकाश भाई जी, अति सुंदर व सार्थक कविता के लिए आभार.