कविता : अवनति
जहाँ होते थे पहले लहलहाते खेत
आज वहां कंक्रीट के जंगल हैं
पहले वहां खुले विचरते थे
कुछ दुधारू पशु और किसान
आज वहां तंग कमरों में
बसते हैं कुछ इंसानऔर कुछ हैवान
पूर्व और पछवा हवा की बाते सब बिसर गए
अब तो कूलर और ए सी की बात होती है
सर्दी में खुले आँगन और खुली छत पर
धूप सेंकना स्वेटर बुनना
किसी जमने की बात लगती है
जहाँ पहले थी गौशाला और थे खलिहान
आज वहां मर्रिज पैलेस में
होते हैं अर्द्धनगन नाच
नशेड़ी मनचले इनका मज़ा उड़ाते है
गैरतमन्दो के सर शर्म से झुक जाते हैं
ऐसे बदल रहे है हालात
बदल रही है आदमी की औकात
प्रभु ही मालिक है–
कब फिर से वह सतयुग आएगा —
फिर बजेगी बंसी कन्हैय्या की।
और इस धरती का हर प्राणी
सच्चा इंसान कहलायेगा
— जय प्रकाश भाटिया
हकीकत