मुक्तक
वो जो बरसात की बूंदो मे नहाने निकले
यूं लगा हुस्न से बूंदो को जलाने निकले
मलमली कुर्ती मे गोरा बदन मेरी तौबा
जिसने देखा कहा क्यूं आग लगाने निकले॥
तन को छूकरके बूदें नाज़ से इतराती है
उसकी साँसों से फिजाये भी महक जाती है
जब झटकती है जुल्फे खोलके हाये तौबा
दिल की धडकन भी शराबी सी बहक जाती है
देख कर यूं लगा खिलता गुलाब है कोई
या जवानी का जलता आफ़ताब है कोई
मलिका हुस्न उतर आई स्वर्ग से या तो
या कि चाहत का ये हसीन ख्वाब है कोई॥
कुछ तो सावन की फुहारों का नशा छाया है
हुस्न के जलवो ने उस पर ये सितम ढाया है
रोक दो रोक दो इतना भी सितम ठीक नही
दिल बहुत मुश्किलों से अपना सम्हल पाया है॥
सतीश बंसल