बुझदिल पड़ोसी
बड़ा बुझदिल पड़ोसी है नहीं सम्मान जो जाने
कायर की तरह भौके नहीं अरमान जो जाने
भरे नफरत सदा विषधर , दिखा जब सिंह धरती पे,
शावक बन गया बुझदिल दिखा जब सिंह का रुतबा
हमारी संस्कृति ऐसी की दुश्मन प्यार करते हैं
अगर अंतस की भाषा को – समझते काश ये जाहिल
धरा के धर्म को भूले बड़े काफ़िर थे वे गीदड़
समाया था ये भय उनमें, धरा का दूध भी पानी
दिया दावत नजायज था – मरा कब सिंह खाता है
नहीं एहसास उसको था पड़ा जब सिंह से पाला
— राजकिशोर मिश्र ‘राज’ प्रतापगढ़ी
शनिवार ०६/०८/२०१६
सुन्दर कविता !
आदरणीय जी आपकी आत्मीय स्नेहिल हौसला अफजाई के लिए आभार संग नमन
आदरणीय जी आपकी आत्मीय स्नेहिल हौसला अफजाई के लिए आभार संग नमन