ग़ज़ल २
मौहब्बत ये हमारी हमारी जान की दुश्मन बन गई
न जीने देती है न मरने देती है ये उलझन बन गई ।
एक एक पल गुजरता है के जैसे हो गई सदियाँ
उनकी यादों भरी बारिश आँखो की उलझन बन गई।
कभी समझा गए हमको कभी समझा दिया हमने
इजहार ए दर्दे-दिल का हो कैसे ये उलझन बन गई ।
तेरी बाहों में दम निकले काश वो वक्त भी आए
मिलते हैं नदी के दो किनारे कब ये उलझन बन गई ।
टूट जाते हैं अक्सर चोट से सुनो पत्थरों के दिल भी
फूल सा दिल हमारा है ये उलझन बन गई
न जाने कब लहर आए बहाकर साथ ले जाए
बनाया रेत का है घर ‘जानिब’ ये उलझन बन गई ।
— जानिब