मनुष्य व समाज की प्रमुख शत्रु अविद्या
ओ३म्
सामान्यतः सत्य ज्ञान को विद्या और विपरीत या मिथ्या ज्ञान को अविद्या कहते हैं। वेद का एक अर्थ जानना व ज्ञान भी होता है। मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति माता-पिता व आचार्य के उपदेशों सहित वेद और सत्य वैदिक साहित्य को पढ़कर उसका सम्यक् ज्ञान होने पर होती है। ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों को विद्वान कहते हैं। इसके विपरीत जिनके माता-पिता व आचार्य वेद और वेदानुकूल शास्त्रों का ज्ञान न रखते हों, जिन्हें वेदों की सत्परम्परा से ज्ञान प्राप्त न हुआ हो, तो ऐसी सन्तानें स्कूलों व कालेजों में अनेक विषयों को पढ़कर ज्ञानी अवश्य बन जायें परन्तु मनुष्य जीवन को अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त करने के लिए जिस सत्य विद्या व ज्ञान की आवश्यकता होती है वह तो केवल वेद और वैदिक साहित्य से ही प्राप्त होता है। वर्तमान काल पर विचार करें तो वेदानुकूल सभी शास्त्रों का निचोड़ अमृत व नवनीत के समान लोकभाषा हिन्दी भाषा में उपलब्ध ‘सत्यार्थप्रकाश’ एक ऐसा ही ग्रन्थ है जिसे पढ़कर वैदिक सत्य सिद्धान्तों से परिचित हुआ जा सकता है और अपने जीवन को सन्मार्ग पर चलाकर अभ्युदय और निःश्रेयस को प्राप्त किया जा सकता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से मनुष्य में सद्ज्ञान वा विवेक की प्राप्ति होती है। यह सद् ज्ञान व विवेक समाधि अवस्था में प्राप्त होने वाले विवेक ज्ञान से कुछ भिन्न हो सकता है परन्तु है उसका पूरक ही। यह कह सकते हैं कि क्योंकि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ एक समाधि सिद्ध योगी और वेद मर्मज्ञ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने बनाया है, अतः इसमें उन्होंने जो ज्ञान प्रस्तुत किया है वह उन्हें समाधि में प्राप्त होने वाले विवेक ज्ञान का ही प्रतिरूप होने से यह भी एक प्रकार समाधि में प्राप्त विवेक ज्ञान ही है जो मनुष्य की सार्वत्रिक उन्नति करने में सक्षम है।
हमारे देश व देशान्तर में बहुत से लोग हैं जो वेद और सत्यार्थप्रकाश से अपरिचित हैं। वह जीवन में अपनी आत्मा की प्रेरणा के अनुरुप सत्य व्यवहार करते हुए अनुशासित जीवन व्यतीत करते हैं। वह सभी प्रशंसा के पात्र हैं परन्तु वेदाध्ययन से अयुक्त व दूर होने के कारण वह जीवन व्यवहार, चरित्र व भोजन आदि के नियमों को भली प्रकार से नहीं जानते। ऐसे अच्छे लोग भी अविद्या से ग्रस्त ही होते हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि उनका मनुष्य जन्म किन कारणों से व किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये हुआ है। सब प्राणियों का जीवन दाता कौन है व उसका स्वरूप कैसा है? इससे भी संसार के लोग अपरिचित हैं। अतः इस कारण वह सभ्य बन्धु उस मार्ग को नहीं जानते जो जीवन के यथार्थ उद्देश्य का ज्ञान एवं उसकी प्राप्ति कराता है। इसका निर्णय या तो वेद और वैदिक साहित्य पढ़कर होता है या इन सब प्रश्नों के उत्तर सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर भी जाने जा सकते हैं। वेद पुनर्जन्म को मानते हैं। मनुष्य का जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, एकदेशी, ससीम, स्वतन्त्र कर्ता, फल भोगने में ईश्वर के अधीन है। वह सत्कर्मों व योगाभ्यास से समाधि को सिद्ध कर विवेक प्राप्त करता और इससे मोक्ष सिद्ध करता है। असत्य व अज्ञानता में फंस कर जीवात्मा लोभवश अशुभ व हेय स्वार्थ पूर्ति के कर्मों को करके वह कर्म फल बन्धनों में फंस जाता है जिससे कर्मानुसार मृत्योत्तर काल में अनेक जन्मों में अनेकानेक योनियों में जन्म प्राप्त करता है। सत्य मार्ग व पथ का बोध न होने का कारण अविद्या है जो वेद व वैदिक ज्ञान की प्राप्ति से ही दूर होती है। इसके लिए मनुष्य के माता-पिता व आचार्य का वेदों का जानकार व ज्ञानी होना आवश्यक हैं तथा मनुष्यों को भी अधिकाधिक पुरुषार्थ करना होता है।
महाभारत युद्ध में बड़ी संख्या में विद्वानों की मृत्यु हो जाने के कारण देश देशान्तर में अविद्या का अन्धकार फैल गया था जिससे मनुष्य ईश्वर, जीवात्म व प्रकृति के स्वरूप को भूलने के साथ धर्म व अधर्म का भेद भी भूल गया। अज्ञानता के कारण उसने जिन मतों का सृजन किया, उसमें अविद्या निहित होने से अन्धविश्वास उत्पन्न हो गये। समय के साथ मतों व अन्धविश्वासों की संख्या बढ़ने लगी। भारत अनेक मतों, सम्प्रदायों व समुदायों सहित मिथ्या परम्पराओं में आबद्ध हो गया। ईश्वर की यथार्थ पूजा को भूला दिया गया। पूर्ण रूप से अहिंसक वैदिक यज्ञों में हिंसा होने लगी जो बौद्ध व जैन मतों के प्रादुर्भाव का आधार बनी। इसी प्रकार से विदेशों में पारसी, ईसाई व इस्लाम मतों का आविर्भाव हुआ परन्तु किसी भी मत में वेदों की समस्त सच्चाईयां विद्यमान नहीं थी। कुछ भारतीय मत तो पुनर्जन्म को मानते हैं परन्तु विदेशों में उत्पन्न मत पुनर्जन्म को नहीं मानते। हमारे देश में मांसाहार निन्दनीय था जबकि विदेशी नाना पशुओं के मांस के आहार के दोषों से अपरिचित होने के कारण इसका सेवन करते आ रहे हैं। ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप भी किसी मत में स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं है। काम, क्रोध, लोभ व मोह की वृत्तियों के कारण समाज में परस्पर द्वेष व स्वार्थ बढ़ते गये जिसने मनुष्य समाज को संगठित व एकजुट करने के स्थान पर असंगठित और विकृत कर दिया। सभी मत व सम्प्रदाय परस्पर एक दूसरे के शत्रु हो गये। ईश्वर के सत्य स्वरूप को भुलाकर पाषाण आदि की मूर्तियों की पूजा होने लगी। अजन्मा, नस-नाड़ी व शरीर के बन्धन से रहित ईश्वर का अवतार माना जाने लगा। कालान्तर में मृतकों का श्राद्ध भी किया जाने लगा। समाज को कृत्रिम जन्मना जातियों के आधार पर बांट दिया गया और उनमें अस्पर्शयता व छुआछूत आदि प्रचलित हो गये। बाल विवाह व बेमेल विवाह भी प्रचलित हो गये। ब्राह्मणों ने वेदों का अध्ययन करना छोड़ दिया। उन्होंने स्त्री व शूद्रों को भी वेदाधिकार व शिक्षा के अधिकार से वंचित कर दिया। इससे अनेकानेक अन्धविश्वास उत्पन्न हुए जिनका कारण अविद्या था। इससे समाज और देश का घोर पतन हुआ। किसी सामान्य या विशेष पुरुष ने इस अविद्या को दूर करने की औषधि रूप वेद ज्ञान की प्राप्ति की चेष्टा नहीं की। सबने अपने अपने अन्धविश्वासों से युक्त मतों को ही ईश्वर प्रेरित मान लिया और अन्धविश्वासों को दूर करने की बात तो दूर है, उन पर विचार करने और शंका करने को भी बुरा माना जाने लगा। मत-पन्थ की मिथ्या मान्यताओं पर शंका करने पर दण्ड कठोर दिया जाने लगा। आज भी ईश निन्दा जैसे कानूनों की चर्चा सुनते रहते हैं। इनका परिणामयह हुआ कि संसार के मनुष्यों में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि भेद उत्पन्न हो गये। वर्तमान में आलम यह है कि कोई भी व्यक्ति व महापुरुष इन मतों के एकीकरण, विलय व ज्ञान के आधार पर एक सत्यमत स्थापित करने पर विचार ही नहीं करते। आज तो देश में वोट बैंक ओर तुष्टिकरण का युग है। आम व सच्चे मनुष्यों का हित गौण हो गया है। ईश्वर और कर्म-फल व्यवस्था का कहीं किसी को कोई भय नहीं है। आर्यसमाज को यह गौरव प्राप्त है कि उसके संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश लिखकर व वेदों की सच्ची शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार कर सत्य मत की स्थापना का प्रयास किया। उनको सफलता इस लिए नहीं मिली की अधिकांश लोग अपने अपने मत के प्रति पूर्वाग्रही थे। अनेक मतों के आचार्यों से ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के विद्वानों के शास्त्रार्थ, चर्चायें और शंका समाधान भी हुए परन्तु वेद विरोधियों के असफल होने पर भी सत्य मत वेद को स्वीकार नहीं किया गया। हां, सभी मतों से अनेक निष्पक्ष व ज्ञानी लोगों ने विगत लगभग डेढ़ शताब्दी में अपने विवेक व ज्ञान के अनुसार वैदिक धर्म को स्वीकार किया है। यह काम जिस पैमाने पर होना चाहिये थे उतना नहीं हुआ जिसका कारण अविद्या ही मुख्य है।
अविद्या को दूर करने के उपायों पर विचार करते हैं तो लगता है कि विश्व में वेदों की विचारधारा का अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिये। वेदों के प्रचार में शिथिलता से ही सभी मत-मतान्तर उत्पन्न हुए हैं और आज भी उनमें वेदानुसार सुधार न होने का मुख्य कारण अविद्या ही है। जब तक यह अविद्या समाप्त नहीं होगी, मनुष्य आपस में मत-मतान्तरों में विभाजित रहकर आरोप-प्रत्यारोप व धर्मान्तरण जैसे कार्य करते रहेंगे जैसे कि वह विगत लगभग दो-ढाई हजार वर्षों से करते आ रहे हैं। यह सन्तोष की बात है कि आज योग का प्रचार बढ़ रहा है और आज पूरा विश्व, अपवादों को छोड़कर, योग की श्रेष्ठता व उपयोगिता को स्वीकार कर चुका है। इसी प्रकार आने वाले समय में वेदों का यदि योग की ही तरह से कोई प्रचार करे, तो वह भी देश विदेश में स्वीकार्य हो सकता है। ऐसा होने पर ही अविद्या कम होगी व दूर होगी। सबसे बड़ी बाधा मत-मतान्तरों के लोगों व उनके आचार्यों की है जो सच्चे व विज्ञान सम्मत वेद मत व सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन करना ही नहीं चाहते। जिस प्रकार विज्ञान में एक विषय में एक ही सिद्धान्त होता है, परस्पर विरूद्ध विचार तो सिद्धान्त कदापि नहीं हो सकते, इसी प्रकार धर्म में भी सत्य सिद्धान्त एक ही होता है जिसका निर्धारण केवल वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन सहित योगाभ्यास व समाधि आदि को सिद्ध कर किया जा सकता है। इसका दूसरा उपाय हमें दिखाई नहीं देता। महर्षि दयानन्द जी का भी ऐसा ही मत था जो कि वेदों के मर्मज्ञ और योग समाधि को सिद्ध किये हुए थे।
हमने देखा है कि जब हम किसी अन्य मत के व्यक्ति से सैद्धान्तिक चर्चा करते हैं तो उनके पास सबल तर्क न होने पर भी वह सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज पर दोषारोपण करते हैं। यह भी कह देते हैं कि संसार में केवल एक वेद ही नहीं अपितु अन्य ग्रन्थ भी हैं। अनेक व्यक्ति पुराणों में निहित सभी बातों को भी पूर्ण सत्य स्वीकार करते हैं जबकि प्रायः सभी पुराणों की मान्यताओं व कथनों में परस्पर विरोध होने सहित वह ईश्वरीय ज्ञान वेदों के भी विरुद्ध हैं। ऐसे मित्रों को वैदिक सिद्धान्तों को समझाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव ही होता है। अतः हमें व आर्यसमाज को जन-जन में तीव्रता से वेदों का प्रचार करने की न केवल योजना बनानी चाहिये अपितु इस कार्य को सफल करने में पूरा बल लगाना चाहिये। यदि इसमें चूक होगी तो परिणाम वहीं होगे जो अतीत में हुए व वर्तमान में हो रहे हैं। वेदानुकूल जीवन ही अभ्युदस व निःश्रेयस की प्राप्ति का मार्ग है और इतर मार्ग इन उपलब्ध्यिों से दूर ले जाने वाले हैं। महर्षि दयानन्द ने विद्या तथा अविद्या की चर्चा करते हुए आर्योदेश्यरत्नमाला लघु ग्रन्थ में कहा है कि जिससे ईश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों का सत्य ज्ञान वा विज्ञान होकर उनसे यथायोग्य उपकार लेना होता है, उनका व्यवहार करना होता है उसका नाम ‘विद्या’ है। अविद्या उसे कहते हैं जो विद्या से विपरीत है और साथ हि भ्रम, अन्धकार और अज्ञान रूप है। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय मे कहा गया है कि विद्या से अमृत अर्थात् अमृत की प्राप्ति होती है। इसका अर्थ है कि अविद्या, विपरीत व मिथ्या ज्ञान होने से मोक्ष प्राप्ति में बाधा पड़ती है। मनुष्य अविद्या के कारण कर्मफल बन्धन में फंस कर जन्म जन्मान्तर में दुःख भोगता है। अतः अविद्या मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु सिद्ध होती है परन्तु इससे ग्रस्त मनुष्य को पता नहीं होता कि वह अविद्याग्रस्त व रोगी है। क्या यह बहुत बड़ा आश्चर्य नहीं है? इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य