उपन्यास अंश

आजादी भाग –७

राहुल को प्याज छिलते हुए काफी समय हो गया था । उसके साथ ही प्याज छिल रहे लडके ने अब प्याज काटना शुरू कर दिया था । राहुल की आँखों से अनवरत अश्रुओं की धार बह रही थी । वह प्याज छिले जा रहा था और साथ ही प्याज की वजह से रोये जा रहा था । उसकी आँखों में जलन हो रही थी और आँखें लाल भी हो गयी थी फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह वहां से उठ जाये ।
उसके बाद भी दोपहर तक वह किसी न किसी काम में लगा रहा । दोपहर के लगभग तीन बज गए थे । भोजनालय में अब ग्राहकों की संख्या लगभग न के बराबर थी । दुसरे लड़कों के साथ ही राहुल भी भोजन करने बैठा । भोजन सामने थाली में आते ही वह स्वतः ही भोजन करने लगा । उसे स्वयं आश्चर्य भी हो रहा था और दुःख भी । उसे याद आ रही थी अपने माँ की जो उसे खाना खीलाने के लिए हर जतन करती । और बड़ी मान मनौव्वल के बाद वह खाना खाकर मानो माँ पर बहुत बड़ा अहसान कर देता ।
आज उसे अहसास हो रहा था माँ उसके लिए क्या करती थी । उसे घर से भाग आने के अपने फैसले पर अब पछतावा भी हो रहा था और शर्मिंदगी भी महसूस कर रहा था । उसे याद आ रही थी अपने पिता की जो मूक रहकर भी अपना स्नेह प्रेम उसपर लुटाया करते । उसकी हर जरूरतों और कठिनाइयों पर नजर रखते । ‘ उसका जी तो चाह रहा था बस उठे और एक झटके से दौड़ पड़े    स्टेेेशन  की ओर और ट्रेन पकड़कर पहुंच जाये अपने घर । लेकिन उसके छोटे से दिमाग में आत्मसम्मान बनाये रखने की भी जद्दोजहद चल रही थी । लिहाजा विवश राहुल ने खुद को परिस्थितियों के हवाले कर दिया था ।
भोजन करने के बाद अब राहुल को दो घंटे का अवकाश मिल गया था । भोजनालय के मालिक ने उसे जेब खर्च के नाम पर दस रुपये देते हुए बताया ” दो घंटे की छुट्टी है । तुम चाहो तो आसपास कहीं सैर करके आ सकते हो या फिर कहीं जाकर आराम कर सकते हो । लेकिन ध्यान रहे सही समय पर तुमको वापस आ जाना है । ठीक है ? ”
उसकी बात समझ जाने के अंदाज में राहुल ने सीर हिलाया और फिर बाहर नीकल आया । बाहर नीकल कर एक बार फिर उसे लगा उसे आजादी मिल गयी हो । तभी उसके मन के दुसरे कोने से आवाज आई ” आजादी ! कैसी आजादी चाहता है तू ? तू जैसी आजादी चाहता है वैसी आजादी तो शायद भगवान को भी नसीब नहीं है । भगवान भी भक्तो के बस में होते हैं । माँ बाप के स्नेह प्रेम के बंधन से भी तुझे आजादी चाहिए । माँ बाप सहित समस्त मानव समाज, समाज के एक अघोषित बंधन में रहते हैं । सबके लिए एक आदर्श तरीका तय है जिसे सभी को मानना ही पड़ता है । समस्त सृष्टि के जीव जंतु एक मर्यादा में रहकर ही सही तरीके से अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं । इंसान ही नहीं पशु भी अपने स्वभाव के अनुकूल आचरण करने के लिए मजबूर होते हैं । क्या जंगली पशु चाह कर भी इंसानों के बीच रह सकते हैं ? क्या मछली जल के बाहर भी रह सकती है ? क्या इंसान समाज छोड़कर एकाकी जंगल में रह सकता है ? क्या सभी जीव जंतु अपना खान पान व्यवहार आचरण विचार बदल सकते हैं ? इन सभी सवालों का एक ही सरल जवाब है ‘ नहीं ‘ ! फिर किस आजादी की चाह तुझे यहाँ तक खिंच लायी है ? माँ बाप अगर स्नेहवश कभी डांट भी दें तो क्या वो अप्रिय हो जाते हैं ? बच्चों को डांट कर क्या उन्हें ख़ुशी मिलती है ? नहीं ! कोई भी पालक अपने बच्चों को डांटना नहीं चाहता है वरन उनसे उम्मीद करता है कि उनका बेटा या बेटी उनकी उम्मीदों पर खरा उतरे । माँ बाप अपने बच्चों से उम्मीद करते हैं कि उनकी संतान वह सब उपलब्धियां प्राप्त कर ले जो वह पाते पाते रह गए थे । उनके बेहतर भविष्य के लिए अच्छी शिक्षा के साथ ही अच्छे खान पान रहन सहन की व्यवस्था करने की कोशिश करते हैं । अपनी संतानों से कुछ पाने की उम्मीद करना क्या माँ बाप का बच्चों पर अत्याचार है जिसकी वजह से कोई राहुल घर छोड़कर भागने को ही अपनी आजादी मान बैठे ? ‘
इसी तरह उधेड़बुन के भंवर में फंसा राहुल चलते हुए बगीचे के प्रवेशद्वार तक आ गया  । अन्दर बगीचे में कुछ लोग वहां रखी बेंचों पर बैठे थे तो कुछ लोग टहल रहे थे । एक कोने में पेड़ की छाँव में नर्म घास बिछी देखकर राहुल वहीँ जाकर उस घास पर बैठ गया ।
रात भी उसकी नींद पुरी नहीं हुयी थी सो बैठते ही उसे झपकी का आभास हुआ और फिर बिना कुछ ज्यादा सोचे राहुल वहीँ लुढ़क गया और शीघ्र ही निद्रा देवी ने उसे अपने आगोश में ले लिया था ।
हल्की ठंडी की वजह से राहुल की नींद खुल गयी । उसने अपने चारों तरफ देखा । घने अँधेरे में उसे स्पष्ट कुछ भी नजर नहीं आ रहा था । शायद बिजली नहीं थी । पुरे बगीचे के साथ ही बाहर सड़क पर भी अँधेरे का ही साम्राज्य पसरा हुआ था । उसे ठीक ठीक समय का पता नहीं चल रहा था । बगीचे से बाहर झांककर उसने बाहर दुकानों की स्थिति का जायजा लेने की कोशिश की । सड़क के दूसरी तरफ दुकानों की कतारों में से अधिकांश दुकाने बंद हो गयी थी और जो दुकाने खुली भी थी वह भी बंद कर ही रहे थे । राहुल ने अंदाजा लगाया ‘ लगभग ग्यारह से ज्यादा हो रहे होंगे और वह इतनी देर तक सोता रहा था ‘ सोचकर उसे खुद पर ही गुस्सा भी आ रहा था और आश्चर्य भी हो रहा था । उसे आश्चर्य इस बात को लेकर हो रहा था कि भोजनालय के मालीक ने उसे खोजने की तनिक भी कोशिश नहीं की थी । अब इतनी देर के बाद जाकर वह उसे क्या जवाब देगा और उसके गुस्से का सामना कैसे करेगा ? इस बात को लेकर उसे स्वयं पर गुस्सा आ रहा था ।
अँधेरे में खड़े छोटे छोटे पौधे एक अलग तरह की आकृति का आभास करा रहे थे जिन्हें देखकर राहुल के शरीर में कभी कभी सिहरन दौड़ जाती । उसे ऐसा लगता मानो सामने कोई भयानक जीव हो और जब तक वह मन को समझाने में कामयाब होता कि वह और कुछ नहीं उसका वहम है तभी उसका ध्यान दूसरी तरफ चले जाता जहां से दुसरे किसी पेड़ की आकृति उसे डराने लगती । उसका बाल मन आखिर कब तक धैर्य रखता और भयभीत नहीं होता ?
डर के मारे राहुल ने निकलने के लिए प्रवेश द्वार की तरफ दौड़ लगायी लेकिन अँधेरे की वजह से किन्ही झाड़ियों में पैर उलझ गया और वह गीर पड़ा । उठकर किसी तरह बड़े से दरवाजे के पास पहुंचा लेकिन दरवाजे पर जड़े मोटे से ताले को देखकर उसकी रही सही हिम्मत भी जवाब दे गयी ।
वह वहीँ नीचे ही बैठ गया और डर के मारे रोने लगा । उसे समझ में नहीं आ रहा था की अब वह क्या करे ?
शायद अँधेरे की वजह से चौकीदार ने उसे देखा नहीं होगा और बगीचे का दरवाजा बंद करके चल गया होगा । बड़ी देर तक वह उसी स्थिति में बैठा रोता रहा और इसी उम्मीद में दरवाजे से बाहर की तरफ अपलक देखता रहा कि शायद कोई गुजरनेवाला उसे दिख जाये जिसे वह आवाज देकर बुला सके । वह शायद उसकी कुछ मदद कर सके । लेकिन बड़ी देर तक देखने के बाद भी उसे वहां से गुजरता हुआ कोई नजर नहीं आया ।
अब ठण्ड बढ़ती जा रही थी । उसका शरीर कंपकंपाने लगा था । उसके मस्तिष्क में कौंधा ‘ वह डर के मारे तो नहीं लेकिन ठण्ड के मारे सुबह तक अवश्य मर जायेगा । सुबह तक तो उसकी कुल्फी ही जम जाएगी । अब वह क्या करे ? बैठे बैठे कुछ न करके पछताने से कुछ प्रयत्न करना ही बेहतर है ।
कुछ सोचकर राहुल उठा और दरवाजे में लगे लोहे की सलाखों को दोनों हाथों से पकड़ लिया । उसे ऐसा लगा जैसे उसने लोहे को नहीं बर्फ की सिल्लियों को पकड़ लिया हो । लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और वैसे ही सलाखों को पकडे हुए एक पैर दरवाजे की कुण्डी पर रखकर ऊपर चढ़ गया । अब वह दरवाजे पर आधी ऊंचाई तक पहुँच गया था । कुण्डी के ऊपर सलाखों से बनी डिजाइन के गोले में पैर फंसाकर वह दरवाजे के उपरी हिस्से पर पहुँच गया और फिर उसे दूसरी तरफ से उतरते हुए उसे ज्यादा कठिनाई नहीं हुयी ।
अब वह बगीचे की कैद से आजाद था । बाहर नीकल कर उसने सड़क पर नजर दौडाई । बाहर स्तब्ध कर देनेवाली शांति पसरी हुयी थी । अँधेरे की चादर ओढ़े पुरी पृथ्वी मानो गहरी नींद में सो रही हो । बीच बीच में कहीं से आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाजें शांति भंग करने का अपराध कर रही थीं लेकिन इस पर गौर करने वाला भी कोई नहीं था । तभी उसकी नजर दूर जल रहे अलाव की तरफ पड़ी जहां कुछ लडके बैठे आग ताप रहे थे । राहुल भी उठकर उनकी तरफ चल पड़ा ।

 

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।