पहचान तब बनाना
मेरी चिता के ऊपर पहचान तब बनाना,
जगतारिणी नदी में तब अस्थियां बहाना।
लाखों गये डगर से,
पर मुश्किलें वहीं हैं
बच बच निकल गए सब
काँटे अभी वही हैं।
जो कुछ को चुन सकूँ मैं, दो फूल तब चढ़ाना।
कुछ रात में अभी तक
कुछ का हुआ सवेरा
आँगन में रौशनी है
कोने में है अँधेरा
इस तम को हर सकूँ यदि, दीपक तभी जलाना ।
है देख कर दुःखित मन
पौधे ये सूखे सूखे
कितने सड़क किनारे
हैं नवनिहाल भूखे
कुछ की क्षुधा मिटाऊँ तब भोज तुम कराना
जिसके लिए ये जीवन
संघर्ष ही रहा है
आघात अभावों के
जो मुस्कुरा सहा है
उसकी जो जीत लिख दूँ तब हार तुम चढ़ाना।