कविता “कुंडलिया” *महातम मिश्र 23/12/2016 घाट घाट पानी पिया, खड़ी नाव मँझधार हर दिन मांझी बदलता, नई नई पतवार नई नई पतवार, घाट नदियां बहुतेरे मंजिल लगती दूर, सिकुड़ती माथ लकीरे गौतम कहना मान, मिले नहि सबको ठाट दुर्लभ है बहुमान, मिले कब घाट से घाट॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी