संस्मरण

मेरी कहानी 194

बैनमर के कहने के मुताबिक वैस्ट पार्क अस्पताल से मुझे खत आ गया कि स्पीच थेरपी के लिए मैं वहां पहुंचू। मैं और कुलवंत अस्पताल जा पुँहचे। हम से पहले एक और पेशैंट था। जब उस का लैसन ख़तम हुआ तो एक गोरी मुस्कराती हुई मेरे पास आई और बोली, ” hello young man ! ” और मेरा हाथ पकड़कर कमरे में ले आई, कुलवंत भी साथ ही थी। take your seats please कहकर वो मेरी फ़ाइल देखने लगी। फ़ाइल देख कर पहले मुझ से बातें करने लगी, सिर्फ यह देखने के लिए कि मेरा शब्दों का उच्चारण कैसा था। फिर उसने एक पेपर शीट निकाली और उस पर लिखे आसान शब्द बोलने को कहा, यह शब्द ऐसे थे जैसे डोर मोर शोर । हर शब्द मुझे जोर से बोलना था। पहले लैसन में बहुत छोटे और सरल शब्द थे। इसके बाद मुझे मुंह और जीभ की एक्सर्साइज़ज़ करने को कहा। वो पहले खुद करती थी और फिर मुझे ऐसा करने को बोलती। हर दफा जब मैं बोलता तो वोह वैरी गुड़, एक्सेलैंट, बोलती। यह लैसन एक घंटे का था और उस ने इतनी अच्छी तरह मुझे समझाया कि मुझे लगा जैसे मैं पहले से ही उसे जानता हूँ। इस में एक बात मैं जरूर लिखूंगा कि काश ऐसा वर्ताव भारत के अस्पतालों में भी हो जाए। आधा दुःख तो नर्सों के बर्ताव से ही दूर हो जाता है। मैंने फगवाड़े के सिविल हस्पताल में नर्सों का व्यवहार देखा हुआ था, जब मेरी भतीजी गुड्डी की ऊँगली चारा काटने वाली मशीन से काट गई थी। ज़्यादा ना लिखते हुए यह ही लिखूंगा कि उस स्पीच थेरेपिस्ट नें एक फ़ाइल में वो शीट रख के मुझे पकड़ा दी और मुझे बोला कि आयन्दा शीटें भी इस फ़ाइल में रखता जाऊं और यह मेरी पर्सनल फ़ाइल बन जायेगी जो धीरे धीरे कम्प्लीट कोर्स हो जाएगा और फिर इस कोर्स को मैं घर पर ही एक्सरसाइज़ करनी थी। दूसरे हफ्ते की अपॉएंटमेंट लेकर हम घर आ गए। ऐसे छै हफ्ते बीत गए और कम्प्लीट फ़ाइल बन गई। इसमें बहुत कुछ था। अगर मेरी जीभ भारी ना होती तो मेरी स्पीच बिलकुल सही हो जाती। इस समीच थैरेपी का एक फायदा यह हुआ कि मेरी स्पीच बिलकुल बंद नहीं हुई और अपने घर में काम चला लेता हूँ। इस थैरेपी का नाम था LEE SILVER MAN VOICE TREATMENT .
सुबह के वक्त ज़्यादातर कुलवंत ही बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती थी। एक दिन बर्फ बहुत पडी हुई थी और कुलवंत की गाड़ी स्लिप होकर एक और गाड़ी से टकरा गई। ज़्यादा डैमेज नहीं हुआ था और गाड़ी दो हफ़्तों में इंश्योरेंस वालों ने रिपेअर कर दी। इसके बाद मैंने कार चलाना छोड़ दिया और अपना लाइसेंस मिनिस्ट्री ऑफ ट्रांसपोर्ट को भेज दिया। अब मैं कुलवंत के साथ चले जाता था और ड्राइविंग पूरी तरह बन्द कर दी। बेशक मैं गाड़ी चला सकता था लेकिन कानून के मुताबक यह रिस्की था। अब हफ्ते में दो तीन दफा कुलवंत मुझे लाएब्रेरी में छोड़ आती और फिर ले भी आती। कुछ देर ऐसे चलता रहा लेकिन अब ऐसी स्थिति आ गई कि लाएब्रेरी में जाना भी बेकार लगने लगा क्योंकि मेरे स्पीच ऐसी थी कि दोस्तों को बहुत कम समझ लगती थी। ऐसा नहीं कि मुझे किसी ने कुछ कहा हो, बस मुझे अपने आप में ही शर्म आनी शुरू हो गई थी और मैंने लाएब्रेरी में जाना ही छोड़ दिया। कुलवंत को मेरे टेस्ट का पता था, इस लिए वो लाएब्रेरी से किताबें मुझे ला देती। मैंने कभी कम्पयूटर के बारे में सोचा नहीं था, बेशक लाएब्रेरी में कई कम्पयूटर रखे हुए थे और इन को इस्तेमाल करने वाले इंडियन या जमैकन ही होते थे। एक दिन हम बिर्मिंघम अपनी छोटी बिटिया के घर गए। अब मैं वाकिंग फ्रेम से चलने लगा था। बिटिया के घर खा पीकर बैठे थे। बिटिया का एक छोटा सा लैपटॉप सोफे पर पड़ा था। यूँ ही मैंने बिटिया से पुछा, ” रीटा ! इसमें किया है जो तुम हर दम इस को पढ़ती रहती हो ?”, बिटिया ने मुझे मेरी पसंदीदा किताब जो शैक्सपीयर की “दी टैंपेस्ट” थी, लैपटॉप पर दिखा दी। फिर उसने समझाया कि कैसे किसी भी इन्फर्मेशन के लिए सिर्फ कीबोर्ड पर लिख देना था और वो सामने स्क्रीन पर आ जाना था। जैसे जैसे बिटिया मुझे दिखाती गई, मेरे दिमाग में तो जैसे लौ हो गई हो। वहां बैठा बैठा ही मैं एक के बाद एक चीज़ डायल करने लगा। मुझे लगा कि अब मुझे लाएब्रेरी जाने की जरुरत ही नहीं थी क्योंकि सभी ई-पेपर स्क्रीन पर उपलब्ध थे। उसी समय मैंने फैसला कर लिया कि मैं अपना लैप टॉप लूंगा। बेटा कहने लगा कि वो तो बहुत देर से मुझे कह रहा था लेकिन मैं ही नहीं माना था।
दूसरे हफ्ते ही बेटा एक नया लेनोवो लैपटॉप मेरे लिए ले आया और मेरा ईमेल ऐड्रैस भी बना दिया और ईमेल करना सिखा दिया। जितनी देर मैं लैपटॉप पे बिज़ी रहता, वक्त कट जाता लेकिन फिर मैं उदास हो जाता। कोई इंसान सारी जिंदगी एक्टिव रहा हो और अचानक डिसेबल हो जाए तो इसको सिर्फ वो ही जान सकता है जिसकी ज़िन्दगी को अचानक ब्रेक लग जाए। मयूजिक का बचपन से ही कुछ शौक था और काफी महंगा की बोर्ड मैंने लिया हुआ। की बोर्ड पे मेरी उंगलियां पानी की तरह चलती थी लेकिन अब मेरे हाथ बहुत कमज़ोर हो गए, यहां तक कि चाय पानी का ग्लास भी दोनों हाथों से पकड़ना पड़ता। लिखता तो अक्षर टेढ़े मेढ़े हो जाते। एक्सरसाइज़ की खातर मैं बगैर सपोर्ट के चलने की कोशिश करते करते पता नहीं कितनी दफा गिरा। आखर में सोशल सर्वीसज़ डिपार्टमेंट वाले मुझे सीट में बैठ कर नहाने के लिए एक बहुत अच्छा कमोड दे गए जिस में बैठ कर मैं नहा सकता था और आगे के लिए नित्य क्रिया के लिए भी इस्तेमाल कर सकता था। घर में हर जगह दरवाजों के दोनों तरफ उन्होंने पकड़ने के लिए हैंडल लगा दिए। गार्डन वाली दहलीज़ के लिए दहलीज़ के दोनों तरफ रैंप लगा दिए ताकि बाहर जाने के लिए मुझे पैर ऊपर ना उठाना पड़े क्योंकि इस में मेरे गिरने का डर था। ऊपर जाने के लिए सीढियों के नीचे और ऊपर दो दो हैंडल फिट कर दिए। एक नई व्हील चेअर मुझे दे दी। खाना खाने के लिए मुझे स्पेशल चेअर दे दी और चाय पानी के लिए स्पेशल ट्रॉली दे दी जिस के नीचे चार पहिये हैं और अपनी मर्ज़ी से इधर उधर घुमा सकता हूँ, इस के ऊपर मैं अपनी किताबें या अखबार रसाले रख सकता हूँ। मुक्तसर में जो भी चीज़ अपनी सहूलत के लिए चाहिए वो मैं उन से मांग सकता हूँ। मेरे कहने पर उन्होंने ने मुझे दो कैचर भी दे दिए। कोई चीज़ नीचे गिर जाए तो मुझे झुकने की जरुरत नहीं है, खड़े खड़े ही मैं इस की सहायता से उठा सकता हूँ क्योंकि इस के हैंडल में एक कलिप्प है। इस को दबा कर नीचे पडी या ऊपर शैल्फ पर पड़ी चीज़ पकड़ी जा सकती है। बहुत सहोलतें ऐसी भी हैं जिन्हें हम इस्तेमाल करते ही नहीं, ज़्यादा गोरे ही यह सहूलतें लेते हैं, मस्लिन घर का कोईं सदस्य मेरी देख भाल करता हो, वो केअर अलाउंस का हकदार है। कुलवंत मेरी देख भाल करती है। उस को भी हक़ है कि कुछ हफ्ते के लिए हॉलिडे बगैरा कर सके, इस के लिए वो सोशल वर्कर का इंतज़ाम करते हैं, उतनी देर तक कुलवंत अपनी ऎंजौयमैन्ट कर सकती है। इस के इलावा और भी बहुत सहूलतें हैं, जिन की हम कोई परवाह ही नहीं करते।
इतनी सहूलतें गॉवर्नमेंट देती है, यह कोई मुफ्त नहीं होती, इस के लिए सारी ज़िन्दगी हम ने हकूमत को टैक्स और इंश्योरेंस के पैसे दिए होते हैं। यह टैक्स और इंश्योरेंस तनखाह का तकरीबन चौथा हिस्सा होती थी। इन कटाये पैसों का फायदा बुढापे और दुःख के समय मिल जाता है। यह सिस्टम इंडिया में भी हो सकता है लेकिन हकूमत को कोई टैक्स देने को राजी नहीं। आज जो काला धन लोग घरों में ढेरों के ढेर छुपाये बैठे है, अगर वो सही तरीके से बैंकों में जमा कराएं तो हकूमत को टैक्स मिलेगा। टैक्स के बगैर कोई हकूमत नहीं चल सकती और इंडिया में सिर्फ वो ही टैक्स दे रहे हैं जो नौकरी पेशा लोग है। मुझे याद आया पंजाब में साइकलों पर टोकन लगते थे। जिन लोगों के साइकलों पर टोकन लग जाते थे वो सड़कों पर शोर मचाते जाते थे कि ” ओए आगे ना जाओ, साइकलों पर टोकन लग रहे हैं ” और लोग डरते वापस मुड़ आते थे। ऐसे में जब कोई टैक्स ना दे तो सरकार को नोट ही छापने पड़ेंगे। खैर, यह तो मेरा हक़ ही था जो मुझे पता था लेकिन सेहत को लेकर क्या करूँ ? यही सोच हर दम दिमाग में रहती। स्पीच थैरेपी के लैसन मैंने दो छै हफ्ते में कम्प्लीट कर लिए थे और मैंने घर पर ही प्रैक्टिस करनी थी जो मैं लगातार करता रहता लेकिन कुछ बन ना पाता और अभी तक कोई ख़ास फर्क नहीं पढ़ा। बस इतना ही है कि मेरे घर के सदस्य धीरे धीरे मेरी बात समझ लेते हैं। इस रोग में स्पीच बिलकुल ख़तम हो जाती है, इसलिए मैं कह सकता हूँ कि कुछ ना कुछ फायदा तो हुआ ही है। सब से ज़्यादा तकलीफ मुझे तब होती थी जब कोई रिश्तेदार हमारे घर आता था । मैं कुछ बोलता और वो कुछ और समझ लेते, जिस से मन ही मन में मुझे बहुत तकलीफ पहुँचती।
गर्मियों के दिन थे और एक दिन सुहावनी धुप थी। कुलवंत फूलों की क्यारियों में वीड, यानी घास फूस निकाल रही थी। जैसे भी गर्मियों के दिन इंग्लैंड में हों, मैं गार्डन में ही बैठ कर कुछ सकून सा अनुभव महसूस करता। यह दिन बहुत ही सुहावना था। हमारे गार्डन में उस वक्त एक ऐपल ट्री, एक चैरी ट्री, और एक पेअर ट्री होता था। शायद मई जून का महीना होगा। फलों के बृक्षों पर फूल खिले हुए थे जिन्होंने बाद में फल की शक्लें अखितयार कर लेनी थी। ऐपल ट्री के फूलों की ओर देखते देखते अचानक मेरी नज़र एक छोटे से स्पाइडर पर पढ़ी जो अपना जाल बुनने में मस्त था। यूँ तो मेरे नज़र बहुत अच्छी है लेकिन पता नहीं क्यों अचानक मेरी नज़र इस स्पाइडर और उस के वेब्ब पर ऐसी पढ़ी कि मैं उठा और अपने वॉकिंग फ्रेम के सहारे भीतर चला गया और मैग्नीफाइंग ग्लास ले आया। यह मैग्नीफाइंग ग्लास तकरीबन चार इंच विआस का था और ध्यान से हर छोटी चीज़ को बड़ा देखना बहुत आसान हो जाता था। इस स्पाइडर की कारागारी देखते ही बनती थी। इस से पहले मैं ने स्पाइडर के बारे में सुना पढ़ा तो बहुत दफा था लेकिन यह स्पाइडर बुनाई कैसे करता है, कभी देखा नहीं था। मैं अपनी कुर्सी ऐपल ट्री के नज़दीक ले आया और मैग्नीफाइंग ग्लास की मदद से ध्यान से देखने लगा क्योंकि इस शीशे में स्पाइडर और उस का वेब्ब काफी बड़ा दिखाई देता था। वैसे यह स्पाइडर बहुत बड़ा नहीं था, बस एक मधुमक्खी जैसा था। इस को ताना बाना बुनते देख मेरी हैरानी की कोई हद्द नहीं रही कि यह इतना अच्छा और एक पैट्रन में यह वेब्ब याने, एक जाल बना रहा था कि मैं हैरान रह गया। उस के मुंह में कोई गोंद जैसी चीज़ थी।
जब मेरी नज़र इस स्पाइडर पर पढ़ी थी तो उस वक्त इस स्पाइडर नें लगता था, अभी अभी ही अपना काम शुरू किया होगा क्योंकि अभी उस ने दो तीन गोल चक्र में ही बुनाई की थी। यह बुनाई ऐसी थी जैसे मछलियां पकड़ने का जाल बन रहा हो। छोटे से रैक्टऐंगल की शक्ल में बुनाई करके वोह कुछ देर रुकता, फिर उस के मुंह की हरकत लगातार होती रहती जैसे मुंह से कुछ मैटीरियल बना रहा हो और फिर एक दम छलांग लगाके, साथ में बरीक तार छोड़ता हुआ दूसरे किनारे पहुँच जाता। यह ऐसे लगता था, जैसे स्पाइडर मैंन एक बिल्डिंग से दुसरी बिल्डिंग पर छलांग लगाता है। कुछ देर इंतज़ार करके मुंह हिलाता रहता और फिर जैसे उस के मुंह में बुनाई का मैटीरियल तैयार हो जाता तो एक दम छलांग लगाके दुसरी तरफ चला जाता। जैसे हम किसी जाल को फैलाने के लिए उस के चारों तरफों को रस्सों से बाँध देते हैं, इसी तरह इस स्पाइडर नें भी बुनाई करने से पहले चारों तरफ पत्तों पर से तारें बनाई हुई थीं, जिन के सहारे यह बड़ा जाल बन रहा था। चारों तरफ तारें बाँध के उस ने मिडल में ही यह जाल बुनना शुरू किया होगा। गोल दायरे में यह डिबिया सी बन रही थीं लेकिन यह काम बहुत स्लो था। हर सुबह मैं गार्डन में आ कर इस को देखता। जब भी मैं आता, यह पहले से बड़ा होता और धीरे धीरे यह काफी बड़ा हो गया। कुछ दिन हो गए, पड़ोस में कोई नए लोग आये थे और उन के बच्चे अपने गार्डन में फ़ुटबाल से खेल रहे थे कि अचानक उन का फ़ुटबाल हमारे ऐपल ट्री पर आ गिरा, जिस से स्पाइडर के जाल में बड़ा सा छेद हो गया। मुझे लगा जैसे मेरे किसी सगे का मकान ढा दिया गया हो। मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन इस देश में बच्चों को कोई कुछ नहीं कह सकता। बहुत अफ़सोस हुआ मुझे उन की इस हरकत पर।
अब स्पाइडर वेब्ब पर यूँ ही बैठा रहता, जैसे अपना घर ढह जाने का मातम कर रहा हो। कुछ दिन बाद जब मैं गार्डन में आया तो मेरी हैरानी की कोई हद्द नहीं रही, जब देखा कि स्पाइडर ने फिर से जाल रिपयेर कर लिया था। ख़ुशी से मैंने दोनों हाथों से ताली बजाई, कुलवंत मेरी तरफ देखने लगी। मेरी सोच का घोड़ा दौड़ने लगा कि जब एक छोटे से जानवर ने अपनी हिमत से अपना टूटा हुआ घर फिर से आबाद कर लिया है तो मैं क्यों नहीं कोशिश कर सकता ! मैंने उसी वक्त हाथों की एक्सरसाइज़ शुरू कर दी। दिनबदिन मेरे हाथों में कुछ फर्क पड़ने लगा। कुछ हौसला बढ़ा और एक्सरसाइज़ को जितना भी हो सकता था, बढ़ाने लगा। चाय का कप्प आसानी से पकड़ होने लगा और हैंडराइटनिंग में भी सुधार आने लगा। अब कुर्सी पर बैठ कर हाथ पाँव हिलाने जुलाने लगा। पहले मैं हाथों को ऊपर ले जा नहीं सकता था, फिर मैंने दीवार के पास खड़े होकर हाथों को ऊपर ले जाने की कोशिश करना शुरू किया। कुछ हफ्ते बहुत मुश्किल लगा लेकिन धीरे धीरे आसान हो गया। फिर मैंने सुबह उठते ही बैड में एक्सरसाइज़ शुरू कर दी जो अब तक जारी है। कुलवंत ने मेरे लिए इलैक्ट्रिक चेअर का ऑर्डर दे दिया। इस पर बैठकर जब चाहे इस को ऊंचा नीचा या टेढ़ा करके एक्सरसाइज़ करना आसान हो गया । हाथों की सख्त एक्सरसाइज़ के लिए बेटे ने हाथों से दबाने वाले स्प्रिंग दे दिए। पहले पहले इन को दबाना मेरे लिए असंभव था क्योंकि यह बहुत सख्त स्प्रिंग होते हैं। एक दो करते करते अब मैं पचास पर पहुँच गया हूँ। लेटकर मैं अपनी टांग को ऊपर उठा नहीं सकता था, अब पचास दफा एक टांग और फिर पचास दफा दुसरी टांग ऊपर नीचे उठा सकता हूँ।
बैनमर ने मुझे छै महीने बाद हस्पताल में बुलाया था। चैक करके उस ने छै महीने की अपॉएंटमेंट फिर दे दी। जितनी दफा मैं उस को मिलता उतनी दफा वो यह देख कर हैरान होता कि मैं अभी तक ठीक हूँ। फिर उसने साल बाद बुलाया और मुझे देखकर बोला, कि वो मुझे देखकर हैरान है क्योंकि यह कंडीशन बहुत तेज़ी से डीटेरिओरेट होती है। बेटे ने उस को बताया कि डैड हर रोज़ एक्सरसाइज़ करता है। गोरे अक्सर कहते हैं, we should learn to live with what we have got और मैंने भी अब इस हालात में जीना सीख लिया था और इस की चिंता छोड़ दी थी। सोशल सर्वीसज़ की ओर से मुझे चलने के लिए दो फ्रेम दिए हुए थे। एक को मैं नें बैड रूम में चलने के लिए रख लिया और दूसरा नीचे, जिसे मैं गार्डन में भी ले जाता था। कुलवंत के सेंटर में उसकी एक सखी को माइनर स्ट्रोक हो गया था और उसने कुछ ठीक हो कर एक थ्री वीलर फ्रेम ले लिया था, जिस से वो सारा दिन यहीं भी जाती, उस के सहारे चले जाती। उस को देखकर कुलवंत ने मुझे पुछा कि अगर मैं ऐसा ही चाहूँ तो वोह मुझे ला दे। मैंने इंटरनैट पे देखा और मुझे पसंद आ गया क्योंकि इस के साथ ही एक बैग और ऊपर ट्रे फिट थी, जिस में मैं अपना कुछ जरूरी सामान भी रख सकता था। बेटे ने अमाज़ोन पर आर्डर कर दिया। दूसरे दिन ही मुझे मिल गई। यह फ्रेम मुझे बहुत पसंद आया। इस थ्री वीलर फ्रेम को चलाना बहुत आसान था और इस के बैग में मैं अपना जरूरी सामान रख सकता था। तब से अब तक यह फ्रेम मेरी रोज़ाना ज़िन्दगी का जरूरी अंग बन गया। चलता. . . . . . . .