कहानी

कहानी : कूड़ेदान में बचपन

कितनी अजीब बात है कि घर का कचरा निकालकर यूँ बाहर फेंक देते हैं जैसे अब उसका कोई उपयोग ही नहीं रहा।

हम क्षण भर यह नहीं सोचते कि वह किसी के उपयोग का भी हो सकता है। उससे किसी का जीवन सुधर सकता है। हमें तो यह भी नहीं एहसास होता कि कोई उसमें अपना बचपन तलाशता है तो कोई जीवन तराशता है।

आज अनायास अपनी बालकनी में चाय का कप थामें नज़रें कुछ यूँ कहीं जाकर ठहर गई, मानो कुछ सिखाना चाहती हो। कुलीन वर्ग के शहर के कूड़ेदान में कुछ बच्चों को यूँ कूड़ा बीनते देख मन में कई सवाल पैदा हुए। उनकी तन्मयता जैसे सिपाही सी लग रही थी। दूर से ही कूड़ेदान में कुछ पॉलीथिनों में खाने युक्त सामग्री चिपकी सी दिख रही थी। जिस पर बच्चों का मोहित होना और उसके प्रति एक-दूसरे में खींचतान हो जाना, यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने हो रहा था।

करीब ५ से ७ बच्चों के उस झुंड का मेरे घर के सामने वाले खाली मैदान के कूड़ेदान में पहुँचने की घटना मैं चाह कर भी भुला नहीं पाता हूँ। उनके आपसी सौहाद्र और एकता ने कई प्रमाण मेरे सामने खड़े किए। उनके शरीर पर कटी-फटी बंडी और किसी का पूरा तो किसी का आधा पायजामा दिखाई दे रहा था। चेहरे पर समाज की दरिंदगी की छाप मैल के रूप में चिपकी थी। बालों में हवाओं ने अपने साथ होने का सबूत छोड़ रखा था। किसी के पास कोई झोला था तो किसी के पास अपना खुद का टंगना। जिसमें किस्म-किस्म के हीरे-जवाहरात लादे-से प्रतीत हो रहे थे। मैं उनकी आँखों में एक विशेष ओज का अनुभव कर रहा था। आत्मविश्वास की छाप तो उनकी चाल से दिखाई दे रही थी पर हर चाल समाज में अपने होने के अस्तित्व भी माँग रही थी।

आज इनकी कदमताल देश की व्यवस्था पर सवाल खड़े कर रही थी। जहाँ व्यवस्था खुद पर अरबों खर्च करते नहीं सोचती, वहीँ यह एक ऐसा वर्ग मेरे सामने था जो सिर्फ ‘कुछ पैसों’ का मोहताज का था।

मुझे अच्छी तरह याद है कूड़ेदान के पास पहुँचाने तक उनमें एकता थी, अद्भुत एकता थी पर अनायास ही उस पोलीथिन के मिलने पर जिसमें कि शायद हलुए के अवशेष थे, अचानक ही दुश्मनी की दीवार कैसे खींच गई…? यह एक अनसुलझी पहेली थी मेरे लिए। आज जब भी मैं हलुए की तश्तरी थामता हूँ तो अनायास ही उनकी याद मेरी तश्तरी को छिनने का प्रयास करती है।

मैं यह मानकर शांत रह जाता हूँ कि ‘पेट जो न कराए सो थोड़ा’।

कुछ ही देर में उन बच्चों की मूर्छित एकता ने सजीव रूप लिया और देखते ही देखते उनकी टोली आगे बढ़ी। मेरे हाथों की चाय ने श्वेत क्रांति कर ली थी। मैं एकटक उनकी तरफ देखता रह गया। उनकी हर चेष्टा पर अब तक मैंने उन्हें अपनी बालकनी की खिड़की से देखने का काम किया, पर अब उनकी तरफ मेरा आकर्षण बढ़ता जा रहा था। मैंने चाय थामे कप को खुद से अलग किया और काली कमीज उठाता नीचे की तरफ सरपट दौड़ पड़ा। उनके प्रति आकर्षण के बढ़ने का एक कारण और भी था।

सन २००२ की बात है। जब मेरा एक मित्र भी उनकी श्रेणी में आया था। एक रोज़ की बात है अपने पिता से क्रुद्ध होकर अग्रिम ने घर की दहलीज़ पार कर ली थी और जबरन लिए गए पैसों से मात्र दो दिन तक गुज़ारा कर पाया था। तीसरे रोज़ की घटना है कि उसकी भी स्थिति कुछ इनके जैसी ही थी। पहले तो नागपुर स्टेशन पर उसके कपड़े तक उतार लिए गए थे। जिसकी शिकायत करवाने अग्रिम पुलिस चौकी पहुँचा जहाँ पर एक पुलिस वाले सज्जन व्यक्ति ने अपना अंगवस्त्र कंधे से ऊतार कर उसे दिया और उसे लपेट कर वो शहर की गलियों में शायद इनकी ही भाँति घूम रहा था। इन स्मृतियों का धुँधली छाया के साथ स्पष्ट रूप में आना भी प्रासंगिक था।

मैं नीचे उतर चुका था। पर यह क्या देखता हूँ, अब वह टोली मेरी आँखों के सामने से ओझल हो चुकी थी। मेरा मन छटपटाने लगा। जिन्हें देखने की उत्सुकता में मैं झट अपने कमरे से नीचे उतर आया। वो पहले तो दिखे नहीं पर जब दिखे तो  उनका रूप मेरे सामने बदला हुआ था। अब वह दयनीय, अप्रिय नहीं बल्कि प्रिय लग रहे थे। उनकी अठखेलियों ने मेरा मन मोह लिया। यदि लिहाज का विषय नहीं होता तो शायद मैं भी उनमें शामिल हो जाता।

पर लिहाज किस बात…?

क्या ये समाज की मुख्यधारा से कटे हुए हैं? क्या मेरा रहन-सहन मुझे रोक रहा था? क्या मैं अपने हँसी पात्र होने से डर रहा था? कई सारे विषय हो सकते हैं। पर हाँ, मुझमें उनके पास जाने का अदम्य साहस नहीं था।

छि: ! छि: ! कितना कायर था मैं उस वक़्त। अपने मन की भी नहीं कर सकता। बस ! बस ! इस समाज के डर से। सिर्फ उनपर  दया करने का, उन्हें म्लेच्छ समझने का अधिकार मुझे इस समाज ने दिया था। हा हा हा..समाज ….समाज…!! समाज..! समाज कौन-सा ? किस बात का समाज ? किस आधार का समाज..? किस समाज की बात कर रहा हूँ मैं। उस समाज की जिसे इन नौनिहालों की चिंता तक नहीं है। उस समाज की जिन्हें भावी पीढ़ी के कचरे में खोने की फिक्र तक नहीं सताती। वह समाज जिन्हें केवल अपनी राह दिखाई देती है। ऐसे समाज से मैं डर कर रुका रहा..

बेबस होकर…. लाचार होकर….बस खड़ा रहा मैं। काश…! उस दिन मेरे क़दमों ने जोखिम उठा लिया इस समाज की नीतियों के विरुद्ध चलने का तो यक़ीनन ही बच्चों की एक टोली संभल गई होती।

खैर…मैं अब उन्हें बैठकर निहारने लगा। उनमें एक अजीब-सी एकता थी जो हर मुश्किल का सामना करने को तैयार थी। अचानक उन्हें एक कुत्ते ने तंग किया , जिसका विरोध उन्होंने सामूहिक रूप से किया और अंततः कुत्ते को अपना रास्ता  मांपना पड़ा। मैं यह क्या देख रहा था कि इस जीत से खुश सभी एक-दूसरे को गले मिलकर बधाई दे रहे थे। जैसे हम पड़ोस के मोहल्ले वालों को हराकर खुद को शाबाशी दिया करते थे। हाँ, कुछ यही स्वरुप था उनका भी।

किसी के पास कुछ टॉफियाँ थी, जिसकी शायद तारीख ख़त्म हो जाने से किसी कुलीन परिवार ने उसे अपने जीवन को बचाने के लिए कचरे के सुपूर्द कर दिया था। पर इन बच्चों को किस बात का डर था।  न जीवन का न मरण का। इनके लिए हर दिन जैसे मरना ही लिखा था। जीने का हक ही कहाँ मिला था, इन बेसहारों को। इनके लिए तो हर एक चीज़ अमृत स्वरुप में थी।

इस टोली ने उन टॉफियों से मुझे एक सीख दे दी कि यदि संसार का हर व्यक्ति इस तरह से मिल बाँट कर खाए और हर काम करे तो हर परेशानी से निजात पाई जा सकती है।

मैं लगातार उन्हें निहार रहा था तभी देखा उस टोली के एक सदस्य की थोड़ी दूरी पर नज़र गई। यकीन मानिए उस पैनी नज़र को मैं आज भी नहीं भूलता क्योंकि सात बच्चों में सिर्फ उसकी ही नज़र थी जो कि कुछ नया तलाश कर रही थी। वह उठा पास के कचरे के ढेर में हाथ डाला और किसी अनुपयोगी हो चुकी चीज़ के एक भाग को खींचना शुरू किया। जैसे ही खींचा उसके हाथों में एक मलिन सी पतलून आ गई। उसे देख कर मानो उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। एक बार फिर उनकी एकता में उस पतलून ने रायता घोल दिया। मैंने देखा वह पतलून उपयोगी तो नहीं लग रही पर हाँ, काम चलाने लायक थी। साहब उनके विचार से अनुपयोगी भी नहीं थी। फिर क्या था सभी एक-दूसरे से भीड़ गए। दोस्ती मलयुद्ध में बदल गई। सभी बारी–बारी से उस पतलून से अपने शरीर को संवार रहे थे। जैसे कोई बड़ी दूकान में जाकर पतलून आजमाता है, ठीक वैसे ही इनकी दशा थी। कोई खुद को दरोगा तो कोई कलेक्टर समझ रहा था।

पर ..पर..पर.. जैसे ही पतलून ने चार हाथ थामे उसकी जर्जरता ने प्राण त्याग दिए। पतलून तो इन्हें स्वप्न दिखाकर अपने मोक्ष को प्राप्त कर चुकी थी। पर इस देश ने आज़ादी के बाद से न जाने इस समाज को कितने स्वप्न दिखाकर छीन लिए। जिनका हिसाब लगाते-लगाते शायद सदियाँ गुज़र जाएँ।

मेरे लिए आश्चर्य का विषय था, उस पतलून के अंतिम साँस लेने का उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। वहीँ परसों श्रीमती ने पतलून इस्त्री करते-करते ज़रा जला क्या दी। मैं तो आग-बबूला हो गया था। वो मेरी कितनी प्यारी पतलून थी। भाग्यशाली समझता था खुद को उसे पहनने पर। पर आज इनके चेहरे की तरफ देखता हूँ तो लगता है कि जीवन कितना विचित्र है।

अब शाम होने को आयी थी। मेरे गल्ली के बच्चों का खेलने का समय हो चुका  था। सभी अपने-अपने हाथों में बल्ला और गेंद लिए रणभूमि की तरफ बढ़ रहे थे। वहीँ दूसरी ओर इन कूड़ेदान के बच्चों की आपसी शरारतें और उनकी मस्ती का तरीका भी बेहद रोचक था। मैं इन दोनों को बारी-बारी से निहारने लगा। यह पहला मौका था जब मैं इस प्रकार से एक ही रूप में तराजू के दोनों पल्लों को एक साथ देख पा रहा था। तराजू  के एक पल्ले पर वह समाज था जिसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं थी। पिता की वसीयत पहले ही उसके नाम आ चुकी थी। वसीयत में उसे भौतिक संसाधन से व्याप्त घर, गाड़ी-घोड़े, कपड़ों की आलमारियाँ और भांति-भांति के पकवान मिले थे। तराजू के दूसरे पल्ले में बिलखता बचपन, शोषित नौनिहाल,दरिद्रता, आँतों से चिके पेट, शरीर पर टंगे चिथड़े पर फिर भी मदमस्त वर्तमान था। पहले पल्ले में कई ऐसे थे जिन्होंने अभी-अभी माँ से झगड़ा किया है कि शाम तक वह खिलौना नहीं आया तो मैं घर में प्रवेश नहीं करूँगा। इसी धमकी में साहबजादे गली में नज़र आ रहे हैं। दूसरे पल्ले में कूड़ेदान के बच्चे किससे इस प्रकार की ज़िद करें। कौन है जो उनकी फरमाईशों को पूरा करेगा। जिनकों इनके पास पहुँचना चाहिए था वो तो जब भी घर से निकलते हैं तो ऐसे लोगों की परछाई भी वहाँ न पहुँचे इसका विशेष ध्यान रखा जाता है।

एक तरफ आधुकिन भारत के बच्चे ‘सचिन तेंदुलकर’ बनने की कोशिश में थे तो दूसरी तरफ आधुनिकता की चिर्राती चादर कूड़ेदान में दिखाई दे रही थी। तभी अचानक गेंद से बल्ले का ऐसा संपर्क हुआ कि गेंद आसमान के रास्ते कूड़ेदान जा पहुँची। एक बालक उस गेंद को लाने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा ऊपर से सातवें माले से आवाज़ आई , “ये मुन्ना, कचरे में नहीं जाना।”

मुन्ना नहीं जाएगा तो गेंद लाएगा कौन…?

गेंद को जैसे ही कचरा बीनते बच्चों के समूह ने देखा, वह उस पर ऐसे टूट पड़े जैसे सदियों का प्यासा जल मिलने पर सारा तालाब खाली कर देना चाहता हो। उनके लिए उस गेंद का स्पर्श भी किसी स्वप्न से कम नहीं था। तभी किसी की आवाज़ सुनाई पड़ी , “ ये लड़के तीन सौ रुपए की गेंद है। उसे हाथ नहीं लगाना।”

ठीक है वो हाथ नहीं लगाएँगे। जाओ तुम्हारे कदमों में साहस है तो आगे बढ़ो। उसी कचरे में जिसमें ये बेचारे रोज़ उठते हैं, खेलते हैं। जिनका सबकुछ तो इसी को बना दिया है इस ‘भेदभाव की व्यवस्था’ ने।

तभी मेरी दायीं और बायीं तरफ एक-एक जमघट लग गया। जैसे पांडव और कौरव खड़े हों। थे तो वो भी आपस में अपने ही, बस फर्क व्यवस्था का था। जिसने उन्हें बाँट रखा था। यहाँ भी दोनों ने एक-दूसरे से ऐसे नज़र मिलाई जैसे अब ये महाभारत छिड़ा तो विराम की कोई सीमा ही नहीं।

कचरे में जीवनयापन करने वाले हाथों ने गेंद का तिरस्कार कर दिया। जैसे अर्जुन ने शस्त्र त्याग दिए हों। उन्होंने अपनी राह ले ही। अपने कचरा बीनने का क्रम जारी रखा। कुछ अब भी उसी गेंद पर नज़र टिकाए थे। गेंद दोनों के पाले से दूर थी। एक वर्ग चाह कर भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता । साथ ही वह जिसकी है उसके  लिए उसकी पहुँच में उस घेरे के बाहर अग्निरेखा-सी प्रतीत हो रही है। कचरे वाले बच्चों ने शायद अपने मन को बाँध जी पर पत्थर रखकर आगे बढ़ने का मन बना लिया था। उनकी कातर निगाहें बार-बार उसी गेंद पर टिकी जा रही थी। जो सब कुछ बयान कर रही थी।

मुझे यह प्रतीत हो रहा था मानो वह गेंद नहीं ‘सामाजिक व्यवस्था’ हो। जिसने समाज को दो ऐसे वर्गों में बाँट रखा है, जिसका कोई छोर ही नहीं है। गेंद से दोनों की सामानांतर दूरी होते हुए भी कोई उसे प्राप्त नहीं कर पा रहा है। ठीक समाज में भी यही है। सब कुछ स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि कहाँ क्या है पर करने को कोई आगे नहीं आता। अब तक इसी गली से न जाने कितने लोग गुज़र चुकें हैं पर किसी की इन कचरे में खोते बचपन की ओर नज़र नहीं गई। कोई पहले, कोई पाँचवे, कोई दसवें माले से इसको देखकर आनंद ले रहा है पर आगे बढ़कर इन दोनों के बीच की दूरी मिटाने वाला कोई नहीं है। इनके बीच इस दूरी को बढ़ाने की कोशिश करने वाले कई हैं।

गेंद जस की तस पड़ी है। कचरा बीनने वाले बच्चे अब पलटने लगे हैं। निराशा उनके चेहरे पर साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है। दूसरा वर्ग आगे बढ़ने की कोशिश भी करता है तो कई मालों से आवाज़ आती है,  “तुम नहीं।” “तुम नहीं।”

मैं अपने घर की तरफ पलट चुका था। मेरे कदमों में उतरने जैसी स्फूर्ति नहीं थी। अचानक अपने चाय के कप की याद में मैं आगे बढ़ने लगा। मुझे याद है सिर्फ सात कदमों की दूरी तय की थी कि अचानक एक आवाज़ ने मेरा ध्यान खींच लिया। बढ़ते कदम रुक गए। मैं जैसे पलटा अजीब-सा दृश्य सा था।

गेंद जिसके बल्ले से गई थी उसने जोश भरे शब्दों में ज़ोर से कहा, “ वो भाई ! हमारी गेंद तो देते जाओ। मेरी बारी बची है। मुझे और खेलना है। जब तक तुम गेंद नहीं दोगे तो हम कभी नहीं खेल पाएँगे। ”

इसी आवाज़ ने जैसे उन बच्चों में उत्साह भर दिया था। अपनी एकता को तोड़ सब एक साथ दौड़ पड़े कि देखो गेंद किसके हाथ से उस छोर तक जाती है। उनका दौड़ना जारी रहा। अब यहाँ से ये बच्चे भी उनका उत्साह बढ़ा रहे थे।

मैं अपने कमरे में लौट चुका हूँ। चूल्हे पर एक विश्वास की मध्यम आंच पर चाय चढ़ा रखी है।

बार-बार उस बच्चे के उद्गार कानों में गूँज रहे हैं। “जब तक तुम गेंद नहीं दोगे तो हम कभी नहीं खेल पाएँगे।” “जब तक तुम गेंद नहीं दोगे तो हम कभी नहीं खेल पाएँगे।”

रवि शुक्ल ‘प्रहृष्ट’

 

रवि शुक्ला

रवि रमाशंकर शुक्ल ‘प्रहृष्ट’ शिक्षा: बी.ए वसंतराव नाईक शासकीय कला व समाज विज्ञानं संस्था, नागपुर एम.ए. (हिंदी) स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्व विद्यालय, नागपुर बी.एड. जगत प्रकाश अध्यापक(बी.एड.) महाविद्यालय, नागपुर सम्प्रति: हिंदी अध्यापन कार्य दिल्ली पब्लिक स्कूल, नासिक(महाराष्ट्र) पूर्व हिंदी अध्यापक - सारस्वत पब्लिक स्कूल & कनिष्ठ महाविद्यालय, सावनेर, नागपुर पूर्व अंशदायी व्याख्याता – राजकुमार केवलरमानी कन्या महाविद्यालय, नागपुर सम्मान: डॉ.बी.आर.अम्बेडकर राष्ट्रीय सम्मान पदक(२०१३), नई दिल्ली. ज्योतिबा फुले शिक्षक सम्मान(२०१५), नई दिल्ली. पुरस्कार: उत्कृष्ट राष्ट्रीय बाल नाट्य लेखन और दिग्दर्शन, पुरस्कार,राउरकेला, उड़ीसा. राष्ट्रीय, राज्य, जिल्हा व शहर स्तर पर वाद-विवाद, परिसंवाद व वक्तृत्व स्पर्धा में ५०० से अधिक पुरस्कार. पत्राचार: रवि शुक्ल c/o श्री नरेन्द्र पांडेय पता रखना है अन्दर का ही भ्रमणध्वनि: 8446036580