कहानी

कहानी : थके पाँव

मुन्नी की बिदाई हुए बस दो ही दिन गुज़रे हैं। मेहमानों का ताँता अभी ख़त्म भी नहीं हुआ।  जलेबी की चासनी ने सूखना शुरू भी नहीं किया है। बाँसुरी की मधुर धुन और ढोल नगाड़ों की आवाजें आज भी मध्यम-मध्यम कानों में गूँज रही है।  घर के बाएँ और दायें तरफ अभी भी पत्तलनुमा  ज़मीन दिखाई दे रही है।  घर में किलकारियों वाले बच्चे सदस्यों के कंधे पर चढ़-चढ़ कर अपना आसमान छूने को आतुर हैं।  बगीचे की रौनक रोशनी  की वज़ह से निखर रही है।  छोटे-छोटे बल्पों ने जैसे अनगिनत तारों को  ज़मीन पर उतार दिया हो। एक बड़ा-सा गोल लैंप  चाँद  की तरह सभी के लिए दर्शनीय है। सभी के हाथों में गर्म चाय का कुल्हड़ और एक तरफ चारपाई पर नमकीन रह-रह कर अपनी चरम सीमा को प्राप्त कर रही है।

एक कोने में दुबके से सोहनलाल अपने हाथों को चेहरे पर रखे खुद को खुद से छिपाने की अधूरी कोशिश कर रहे हैं। दिमाग में एक साथ कई सारी बातें चल रही हैं। कोई आवाज़ भी देता है तो उसे अनसुना करने की अनायास ही इच्छा हो जाती है। दो दिन हुए भूख और प्यास ने इनसे रिश्ता तोड़ लिया है। आज उनकी भूख और प्यास अब किसी और घर की दहलीज बन चुकी है। उनकी आँखों की रोशनी,कलाई की घड़ी का समय और सहारा उनकी बेटी इस घर से ब्याही जा चुकी है।

एक सप्ताह पहले तक जिस चेहरे पर रोशनी  और नूर बरसता था। आज उसी चेहरे पर थकान दिखाई  दे रही है।  ये थकान है ख़ुशी की, संतोष की।  पीछे कई किस्सों को कहानी का रूप दे चुकी यादें आज भी सजल हो जाती है। जहाँ आज के ज़माने में  बेटियाँ माँ-पिता की सुने बिना ही शादी करके आशीर्वाद लेने आ जाती हैं , वहीँ  मुन्नी ने आदर्श और प्यार का नया सन्देश समाज को दिया था। बेटियाँ जिनके रहने से घर में स्वर्गानुभूती होती है। जिनकी हँसी –ठिठोली पिता की साँसे होती हैं। जिनके चेहरे की एक ख़ुशी से पिता का दिल भर आता है। आज वही मुन्नी इस घर को, पिता को ससम्मान बिदाई दे चुकी थी।

सोहनलाल की एक ही बिटिया है, मुन्नी। जिसके जन्मते ही सोहनलाल ने वह खुशियाँ मनाई थी, जो अमूमन आम-खास कोई भी नहीं मनाता। मुन्नी के जन्म से ही एक भी दिन ऐसा नहीं गया होगा कि उनकी सुबह और शाम में उसकी ख़ुशी शामिल न हो। यदि मुन्नी रूठ जाए तो यकीन मानिए कि सोहनलाल के चेहरे को पढ़कर कोई भी बता सकता था कि आज मुन्नी ने हँसा नहीं है।उनके गुलशन का एक ही फूल, उनके बगिया की सहारा थी, जो घर को गुलज़ार किए रहती थी। जिससे सोहनलाल का घर रोशन था। आज तक स्कूल से कोई शिकायत नहीं आई थी। स्कूल की बढ़ती कक्षा के साथ ही मुन्नी के भीतर पिता के प्रति सम्मान व देखरेख में बड़प्पन ने स्वयं ही जन्म ले लिया था।

दरअसल मुन्नी के जन्म के कुछ साल बाद ही उसकी माँ का देहांत हो गया था। अपने पीछे इस फूल सी बच्ची को छोड़ गई थी। जिसकी सारी जिम्मेदारी सोहनलाल पर थी। लोग कहते हैं कि सोहनलाल ने न सिर्फ उसे पिता बल्कि माँ का भी स्नेह दिया है। वहीं मुन्नी में जैसे ही समझदारी आई उसने भी अपने पिता का विशेष ख्याल रखा है।

मुन्नी प्रथम श्रेणी से इंटर पास हुई। इंटर के पास होते ही पिता से घर की जिम्मेदारियाँ भी जैसे उसने विरासत में ले ली हो। घर के काम-काज में माहिर मुन्नी ने आज तक शिकायत का मौका नहीं दिया था। कोई कह नहीं सकता कि मुन्नी बिन माँ की बेटी है.कढाई,बुनाई,पाक कला सभी में निपुणता उसे जन्मजात मिली थी.जैसे नियति ने उसकी किस्मत लिखते हुए माँ से बिछोह तो इन कलाओं की सौगात भी दे दी थी।

बचपन से लेकर इंटर तक मुन्नी के स्कूल जाते समय पिता उसे टिफिन थमाया करते थे। पर इंटर पास होते ही दृश्य बदल चुका था। अब पिता सोहनलाल अपनी सायकिल पर टिफिन टंगा पाते तो भावुक हो जाते। जिस बिटिया को कल तक वो उंगली पकड़ कर सहारा देते थे ,आज वही उन्हें आगे की राह दिखा रही थी। इंटर की पढ़ाई का फायदा हुआ कि सोहनलाल के कुछ कामों में मुन्नी भी मदद कर देती थी।  जिससे दोनों का मन बहल जाता था।

दफ्तर से वापस आते ही गुड़ और पानी हाथों हाथ मिलने की आज सोहनलाल को बहुत याद रही थी। आज कोई पास आकर भी उनसे दूर हुआ जा रहा था। सगे संबंधी जो कि कोने –कोने से आए थे, सभी सोहनलाल की स्थिति से अवगत थे। शायद इसलिए कोई उन्हें उनकी इन यादों की राह से हटाना नहीं चाहता था। कुछ बुजुर्गों ने धीरे से कहा , “काश ! जी भरकर आँसू निकल जाएँ इस सोहू के आँख से तो इसके कलेजे को ठंडक मिले।”

आज सोहनलाल न खुलकर रो सकते थे और न ही ख़ुशी व्यक्त कर सकते थे। उसे उसकी बिटिया मुन्नी पर बहुत नाज था। उन्हें ऐसा लगता कि बेटा होता तो भी वह मुन्नी की जगह नहीं ले सकता था। सही भी है बेटी को देवी की संज्ञा यूँ ही नहीं दी गई है। उनमें नौ रसों की अभिव्यक्ति होती हैं। उनके जैसी क्षमता ईश्वर ने किसी को नहीं दी। बेटी, बहन, पत्नी, बहू, माँ न जाने कितने रूप हैं। सभी रूपों में सर्वश्रेष्ठ कलेजे का यही टुकड़ा रहता है। भगवान का इंसाफ देखिए जो ह्रदय के करीब होता है उसी से उसे ही वह दूर कर देता है।

सोहनलाल की समझ में नहीं आ रहा था कि ये रस्म किसने बनाई है कि बेटियों को ससुराल पक्ष में ही जाकर रहने की ज़रुरत है.जो बेटियाँ अपने पिता से असीम स्नेह रखती हैं उन्हें उनसे दूर करने वाली प्रथा का आज सोहनलाल को पछतावा हो रहा था। परंपरा का निर्वहन तो उन्होंने भलीभाँति कर लिया था, पर इस बिछोह को लेकर वे कैसे जीवन गुजारेंगे, ये सवाल तो अन्य लोगों के दिमाग में था। पर सोहनलाल तो कुछ और ही सोच रहे थे।

उनकी सोच एक पिता की सोच थी। स्वार्थ के धरातल से दूर होकर वे तो सिर्फ मुन्नी की चिंता कर रहे थे। जिस कली को उन्होंने प्यार की खाद से सींचा, आज उसे किसी और को सौंप दिया। क्या वहाँ उसका जी लगेगा..? अपने जीवन के अधूरेपन को भूलकर मुन्नी की चिंता उनके दिमाग की रगों में हरकत पैदा कर रही थी।

एक तरफ उनकी सोच उन्हें खुद से उलझाए हुए थी तो दूसरी तरफ घर आए मेहमानों ने अपने –अपने सामान बाँधने शुरू किए। सोहनलाल ने रोकने की कोशिश की पर सभी ने काम का हवाला देकर रजामंदी ले ली। अब कोई उद्देश्य भी कहाँ था। जिस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आए थे वह तो पूर्ण हो चुका था। उन्हें सोहनलाल की मुन्नी जैसी चिंता थोड़े ही थी।

काहे को कोई किसी के सरोकार में पड़े। अपना रास्ता भला। शादी – ब्याह में तो आदमी शामिल ही इसलिए होता है इसके पीछे उसका अपना स्वार्थ निहित होता है। सबकी एक ही सोच होती है, मैं इनके यहाँ नहीं जाऊँगा तो मेरे घर कौन आएगा। इसी सोच में मन मारकर कई बार लोग बैर-मनमुटाव को छोड़कर एक-दूसरे के घर पहुँच जाते हैं।

सभी की गाड़ियाँ दरवाजे पर एक-एक कर लगने लगी थी। सोहनलाल उचित बिदाई के साथ सबको विदा कर रहे थे। बच्चों को नगद और एक कपड़ा, बहुओं को नगद, साड़ी और आशीर्वाद की बिदाई मिल रही थी। बिदाई का सिलसिला रात से जो शुरू हुआ तो सुबह तक चलता ही रहा. कोई रात ग्यारह बजे गया, कोई तीन बजे। सबके रास्ते अलग-अलग थे।

आज मुन्नी भी तो अपना अलग रास्ता तय कर रही थी। जिस रास्ते पर कोई परिचित नहीं थे। पर अब वही उसका संसार था। आज भी सोहनलाल ने खाने को देखा तो धूंधली छाया में मुन्नी थाली लिए प्रकट हुई, अनायास ही शब्द सुनाई देने लगे , “पिताजी बहुत हो चुका काम .पहले भोजन कर लीजिए।” इतना सुनकर भी सोहनलाल कहाँ उठते थे, तब मुन्नी वायदा करती। “जियादा काम होगा तो मैं भी हाथ बटा दूँगी।”

बस फिर क्या इन शब्दों की जैसे ही कानों में गूँज हुई उनके हाथ में थमा निवाला भी जवाब दे गया। मन तो किया खुलकर रो लेने को। पर अपने पिताधर्म का लिहाज कर उन्होंने खुद को संभाल लिया। इस समाज ने पिता को रोने का अधिकार ही कहाँ दिया है। पिता तो सिर्फ जिम्मेदारियों से बंधा एक पात्र है, जिसे समाज में खुलकर रोने का हक़ भी नहीं।

यदि पिता रोयेगा तो उससे उसकी कमजोरी प्रतीत होगी। अब कौन समझाए इस समाज को कि सोहनलाल एक पिता ही नहीं ‘माँ’ भी थे। माँ के सारे फ़र्ज़ तो निभाए थे उन्होंने।

मुन्नी उस रोज हँसते-हँसते रुक नहीं पा रही जब पहली बार सोहनलाल ने उसकी चोटियाँ  बनाई थी। उन चोटियों ने जो रूप लिया था वो एक तरफ पर मुन्नी की हँसी से सोहनलाल बड़े शर्मिंदा हुए थे। बस फिर क्या उस दिन से जैसे ही मुन्नी स्कूल से घर आती सारे काम-धाम छोड़कर वे चोटी बनाने का अभ्यास करने लगते।  अब तो मुन्नी की स्कूल की शिक्षिकाएँ भी उसकी चोटी को देखकर तारीफ़ किए बिना न रह पाती थी।

सोहनलाल को कई ऐसे मौके मिले जब मुन्नी के कारण उन्हें सम्मान मिला था। दफ्तर में मुन्नी के हाथ से बने खाने की तारीफ़ से उनका पेट यूँ ही भर जाता और सारा खाना खुद न खाते हुए बाँट आते थे। कल से किस खाने की तारीफ़ सुनेंगे। अब कानों का क्या होगा। जिसे मुन्नी की तारीफ़ ,उसके शब्द सुनने की आदत हो गई थी।

सुबह की पहली किरण के साथ ही अंतिम मेहमान ने भी बिदाई ली। सभी ने जाते हुए सोहनलाल को बहुत समझाया। सभी के उद्गार सुन सोहनलाल और दुखी हो गए। उनके दुःख का कारण यह रस्म थी। सभी ने कहा, “बेटी तो पराया धन होती है, सोहू। पराए धन को अपने घर में कौन रख सका है.?”

आज सोहनलाल खुद से पूछ रहे थे, “मेरी मुन्नी मेरे लिए पराया धन कैसे हो सकती है।”

घर पर शामियाना उतारने वालों ने दस्तक दी। सोहनलाल का जी चाहता है कि जवाब में कह दें कि कुछ और दिन नहीं रहने दे सकते इस शामियाने को..? इन्हें ही देखकर उसकी याद में जीवन गुज़ार  लूँगा। शामियाना उतर गया। रोशनदान से रोशनी गायब हो चुकी थी। घर का रोशनदान आज मध्यम हो गया था।

शामियाने वाले का बिल चुका कर उन्होंने सामान समेटना शुरू किया। कहाँ से शुरू करें। उनकी समझ में नहीं रहा था। एक तरफ उन्हीं में यादें थी, दूजें उन्हीं को समटने की जिम्मेदारी भी।

ह्रदय की परीक्षा का समय आ गया था। जिन सपनों को बिनने में साल लगा दिए, वह सभी एक ही पल में ध्वस्त हो गए। जिस शादी के पहले उत्साह था। चेहरे पर उमंग थी। बेटी के अरमानों को पूरा करने का आत्मविश्वास था। आज वही सब कुछ तो रह गया था। बचा ही क्या था। अपना सबकुछ तो दे चुके थे। अब उनके पास कुछ नहीं था। अब रो लेने का जी कर रहा है। अब कौन है जो उन्हें देखेगा। कोई भी नहीं। और यदि कोई देख भी ले तो क्या एक पिता को रोने का अधिकार भी नहीं दिया, इस समाज ने।

सामान समेटते-समेटते एक जगह बैठ गए। कुछ देख कर हैरान थे। घर के सामने वाले कमरे में टीवी के ऊपर से कुछ गायब था। देखते ही उनका मन जैसे बैठ गया। अब तो ऐसा लग रहा था कि सब कुछ लुट लिया हो किसी ने। उन्होंने घर का कोना-कोना छान मारा पर नहीं मिली वह चीज़। जिसकी उन्हें तलाश थी। पहले सोचा मेहमानी बच्चों ने कहीं खेलते-खेलते इधर–उधर रख दिया होगा। पर अब चिंता बढ़ गई। घर के फैले चार कमरे से लेकर घर के बाहर तक नज़र दौड़ाई। कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। कोई नहीं। कुछ नहीं। कुछ भी नहीं मिला।

तभी अचानक फोन की घंटी बजी और फ़ोन के दूसरे तरफ की रुदन आवाज सुनकर उनका दिल रो पड़ा। आवाज़ थी मुन्नी की। दोनों ने एक दूसरे की हालत को समझते हुए इसका अहसास भी नहीं होने दिया कि उनकी स्थिति कैसी है..?

मुन्नी ने कहा, “पिताजी, आपसे बिना पूछे कुछ ले आई हूँ। आप नाराज़ मत होना।”

सोहनलाल, “अरे कैसी बात कर रही है, सब कुछ तेरा है।” इनता कहते ही मन तो हुआ कि यह भी कह दें कि अपने पिता को क्यों छोड़ गई इसे भी साथ ले जाती।

मुन्नी, “पिताजी, मैंने आपकी और मेरी वाली वो टीवी पर की फोटो आपसे बिना पूछे ही रख लिया है। मैं उसके बिना नहीं रह पाऊँगी। आप नाराज़ मत होना।”

अब होश संभाले सोहनलाल की आँखें भर आयी। जिस तस्वीर को उन्होंने चारों दिशाओं में खोज लिया था। वह तो अपने साथी के साथ सफ़र में थी। वह तस्वीर थी सोहनलाल और मुन्नी की.. । जब पहली बार मुन्नी ने होश संभालकर जीवन को समझा था, तब की यादें समाई थी उस तस्वीर में…। निर्जीव पर भावनाओं से भरी हुई तस्वीर…!

आश्चर्य की बात ये निकली कि उसी तस्वीर के बगल एक और तस्वीर भी थी। जिसे ले जाना मुन्नी ने उचित नहीं समझा। आज सोहनलाल को उनकी परवरिश का फल मिल गया था। आज उन्हें पिता होने पर गर्व हो रहा था। आज ऐसा अनुभव कर रहे थे जैसे सारी दुनिया ही जीत ली हो उन्होंने।

मुन्नी ने फोन रखा.

सोहनलाल उस दूसरी तस्वीर को देखकर खुद में खो गए। उस दूसरी तस्वीर में उनकी पत्नी, मुन्नी और वो खुद थे। उनके थके पाँव थक चुके थे। मुन्नी जो तस्वीर ले गई है उसकी याद करते। फिर इसे देखने लगते।यह क्रम यूँ ही चलता रहा।  बार-बार विचार करते कि मुन्नी ने वही तस्वीर क्यों चुनी…?

— रवि शुक्ल ‘प्रहृष्ट’

 

रवि शुक्ला

रवि रमाशंकर शुक्ल ‘प्रहृष्ट’ शिक्षा: बी.ए वसंतराव नाईक शासकीय कला व समाज विज्ञानं संस्था, नागपुर एम.ए. (हिंदी) स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्व विद्यालय, नागपुर बी.एड. जगत प्रकाश अध्यापक(बी.एड.) महाविद्यालय, नागपुर सम्प्रति: हिंदी अध्यापन कार्य दिल्ली पब्लिक स्कूल, नासिक(महाराष्ट्र) पूर्व हिंदी अध्यापक - सारस्वत पब्लिक स्कूल & कनिष्ठ महाविद्यालय, सावनेर, नागपुर पूर्व अंशदायी व्याख्याता – राजकुमार केवलरमानी कन्या महाविद्यालय, नागपुर सम्मान: डॉ.बी.आर.अम्बेडकर राष्ट्रीय सम्मान पदक(२०१३), नई दिल्ली. ज्योतिबा फुले शिक्षक सम्मान(२०१५), नई दिल्ली. पुरस्कार: उत्कृष्ट राष्ट्रीय बाल नाट्य लेखन और दिग्दर्शन, पुरस्कार,राउरकेला, उड़ीसा. राष्ट्रीय, राज्य, जिल्हा व शहर स्तर पर वाद-विवाद, परिसंवाद व वक्तृत्व स्पर्धा में ५०० से अधिक पुरस्कार. पत्राचार: रवि शुक्ल c/o श्री नरेन्द्र पांडेय पता रखना है अन्दर का ही भ्रमणध्वनि: 8446036580