संस्मरण

मेरी कहानी 197

ऐमरजैंसी वार्ड में मैं तीन दिन तीन रातें ऐसे ही पड़ा रहा, कोई हिलजुल नहीं थी, खाना तो दूर की बात, पानी पीने की इजाजत नहीं थी। मेरे लब और जीभ सूख रहे थे। नर्स को मैं पानी के लिए इच्छारा करता तो वोह छोटे से स्पंज से मेरे लब गीले कर देती। मैं समझ गया था कि पानी पीने की मुझे इजाजत नहीं थी। दुपहर और शाम को सभी मुझे मिलने आते। कुलवंत मेरी तरफ देख कर आँखें भर लेती लेकिन मैं अपने अंगूठे उठा कर, मैं ठीक हूँ का इशारा कर देता। गियानो बहन का बेटा जसवंत इसी हस्पताल में काम करता था। वोह हर रोज़ एक दो दफा मेरे पास आ जाता था, जिस से मेरे चेहरे पर कुछ मुस्कराहट आ जाती। तीन दिन तक मुझे कोई पानी नहीं दिया गया। मेरी दोनों कलाइयों पर बहुत से पाइप लग्गे हुए थे, जिन में मुझे खून दिया जा रहा था और साथ ही ऐंटिबॉयोटिक्स के बैग में से लगातार दवाई जा रही थी। गुलुकोज़ के ड्रिप्स से ही मेरे शरीर को एनर्जी मिल रही थी। पेट में दो पाइप लग्गे हुए थे, एक नाभि के दाईं ओर और दूसरा नाभि के नीचे, यहां से गंदा खून तुपका तुपका बाहर आ रहा था जो एक प्लास्टिक बैग में जा रहा था। मुंह पर ऑक्सीजन का मास्क लगा हुआ था। मेरे लब और जीभ सूख कर लकड़ी की भाँति महसूस हो रहे थे। जीभ तो बहुत ही रफ महसूस हो रही थी। तीसरे दिन छोटे से कप्प में, जिस में चार पांच चम्मच ही पानी होगा, मुझे पीने के लिए दिया गया। नर्स ने यह कप्प मेरे लबों को लगाया ही था, कि मैं पीने के लिए ऐसे किया जैसे पानी का बड़ा ग्लास मेरे सामने हो। यह कुछ चमचे पीने से यह पानी मुझे अमृत सामान लगा। मन चाहता था, दो तीन ग्लास पानी के पीने को मिलें।
चौथे दिन मुझे जैनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया। इस वार्ड में पंदरां सोलह पेशेंट होंगे। मेरी हालत ऐसी थी कि कमज़ोरी की वजह से मैं बिलकुल ही बोल नहीं सकता था, इस लिए कोई तकलीफ हो तो मैं पैंन से एक पेपर पर लिख देता। नर्सों ने मुझे बता दिया था कि मुझे जुलाब बहुत आएंगे, इस लिए जब भी महसूस हो मैं बैल बजा दिया करूँ। ऐंटिबॉयोटिक्स जो लगातार मुझे ड्रिप से दिया जा रहा था, उससे जुलाब आकर शरीर की सारी ज़हर को बाहर निकलना था। आगे का कुछ लिखने से पहले मैं उन नर्सों को सलाम करता हूँ, जिन्होंने एक माँ की तरह मेरी सेवा की। यह बात कभी भी मैं भूल नहीं सकता। बेशक उन को इस काम के लिए अछि तान्खुआह दी जाती थी, फिर भी हंस हंस कर वोह मुझे साफ़ करती थी और उसी वक्त अगर गंद का एक निशान भी बैड शीट पर लगा होता तो वोह इस शीट को नीचे से निकाल कर उसी वक्त नई अंडे की तरह चिटी बैड शीट विछा देती। हर दफा दो नर्सें होती थीं। उन का तरीका भी कमाल का था। पहले वोह दोनों जोर लगा कर मेरे शरीर को एक तरफ रोल कर देतीं, फिर गंदी शीट इकठी कर देतीं। इस के बाद नई शीट आधी इकठी की हुई शीट की जगह पर बिछा देती। फिर वोह वापस मेरे शरीर को दूसरी तरफ रोल करके गंदी शीट निकाल देती और नई शीट पूरी तरह बिछा देतीं। जब भी मुझे जुलाब आना महसूस होता, मैं बैल दबा देता और एक नर्स उसी वक्त आ कर पहले मेरी बैड के इर्द गिर्द का पर्दा तान देती, फिर वोह मुझे अपना शरीर नीचे से उठाने को कहती। जब मैं उठा लेता तो वोह मेरे नीचे गत्ते का बना पैन रख देती। इस के बाद मुझे बोल जाती कि जब मेरी तसल्ली हो जाए तो मैं बैल का बटन दबा दूँ। जब मेरी तसल्ली हो जाती तो मैं बैल दबा देता। वोह आती और मुझे अछि तरह साफ़ करती, फिर ऐंटीसैप्टिक क्रीम लगा के पाऊडर लगा देती, जैसे बच्चों को साफ़ किया जाता है और हंस कर बाई बाई कह जाती। इसी दौरान अगर मेरी शीट थोह्ड़ी सी भी खराब होती तो वोह नई शीट ले आती और दो नर्सें आ कर मेरी शीट भी बदल देती। इस दौरान वोह दोनों नर्सें हंसती हुई आपस में उन की कोई बात भी करती जातीं। इन नर्सों को मैं कभी भूल नहीं सकता। इन को कोई नफरत नहीं होती थी और ना ही कोई बदबू आती थी। पहले पहल मुझे बहुत शर्म आती थी लेकिन धीरे धीरे मेरी शर्म और झिझक काफी हद तक दूर हो गई थी।
मेरे पास की बैड, एक सरदार की थी, जिस ने अमृत छका हुआ था और रोज़ पाठ किया करता था। इस शख्स ने मुझे कभी नहीं बुलाया और ना ही मेरी कोई मदद की। सच बोलता हूँ, मुझे इससे नफरत हो गई थी और उस की तरफ देखने को भी जी नहीं चाहता था। नर्स को बुलाने से पहले मैं अपने पैंन से पेपर पर लिख देता था कि मुझे क्या जरुरत थी। एक दिन लिखते लिखते पैंन नीचे गिर गया, मैं बोल तो सकता नहीं था, उस सरदार ने देख कर भी मुझे पैंन नहीं पकड़ाया। तीन दिन बाद यह सिंह हस्पताल से डिस्चार्ज हो गया था लेकिन कई दिन तक मैं उसको याद करके नफरत करता रहा। सोचता था, इस शख्स का व्यवहार अपने घर में कैसा होगा। खैर, उसने मेरा कुछ बिगाड़ा तो नहीं था, सिर्फ इंसानी फितरत ही है कि मैं उससे नफरत कर रहा था। वार्ड में हर सुबह सर्जन और बड़े डाक्टर आकर हर मरीज़ की रिपोर्ट देखते थे और नर्सों को हिदायत दे देते थे। दिन रात नर्सें ब्लड प्रेशर और टैम्प्रेचर चैक करती रहतीं। कभी खाना आ गया, कभी चाय काफी आ गई, कभी दुआइआं लेकर आ गईं, कभी सैंडविच बिस्किट लेकर आ गईं, सारा दिन ऐसा चलता रहता था। एक हफ्ता हो गया था और मुझे कुछ कुछ पानी पीने की इजाजत मिल गई थी लेकिन चाय काफी और खाना अभी भी वर्जित था। पिशाब के लिए बैग लगा हुआ था और एक ट्यूब से खुदबखुद तुपका तुपका करके प्लास्टिक के बैग में जा रहा था। जब बैग भर जाता तो नर्स उसकी जगह नया बैग लगा देती और मुझे इस की कोई तकलीफ नहीं थी।
एक दिन ऐसा हुआ कि बैग पिछाब से भर गया। किसी नर्स के धियान में नहीं आया। ऐंटिबॉयोटिक्स के ड्रॉप, गुलूकोज़ के ड्रॉप और ब्लड लगातार शरीर को जा रहा था। इस से मेरा सारा शरीर गुबारे की तरह फूलने लगा। मेरी टांगें, कलाइयां, हाथ पैर यानी सारा शरीर फूल गया। मेरे हाथ बड़े बड़े हो गए। हाथों को देख कर मैंने एमरजेंसी बैल दबाई। नर्स आ गई और मैंने अपने हाथ उसको दिखाए तो वोह घबरा गई। पहले तो उस ने जल्दी से नया बैग लगाया और फिर डाक्टर को बुलाया। डाक्टर ने आते ही कोई कैप्सूल बताया और नर्स ने मुझे पानी के साथ लेने को कहा। तीन दिन में मेरा शरीर नॉर्मल हो गया। हर रोज़ मेरे जखम साफ़ करके ऊपर दवाई की टेप लगा दी जाती थी। ऑपरेशन को टैटेनियम के टाँके लगे हुए थे जो बहुत मज़बूत मैटल के होते हैं। जब मैं इन टांकों को देखता तो अपना पेट देखकर अजीब सा लगता क्योंकि मेरी नाभि अपनी जगह से दो तीन इंच एक तरफ को हो गई थी, पेट की शक्ल बिलकुल ही बिगड़ गई थी। कोई दस दिन बाद दो नर्सें आईं। मुझे कहने लगीं कि ” गुरमेल ! आज आप उठेंगे ” और दो नर्सों ने मुझे दोनों तरफ से पकड़ा और जोर से मुझे सीधा करके धीरे धीरे पैर बैड के नीचे रखने को कहा लेकिन टाँके इतने दर्द कर रहे थे कि मेरी हर मूवमैंट बहुत कष्ट भरी लग रही थी। कोई दस मिंट मुझे पैर फर्श पर रखने को लगे। फिर उन्होंने मुझे धीरे धीरे कुर्सी पर बिठा दिया। कुछ देर बैठने के बाद उन्होंने मुझे एक रेहड़ी पर चढ़ने को बोला जो पास ही खड़ी थी। बड़ी मुश्किल से मैंने अपने पैर इस रेहड़ी के प्लैटफार्म पर रखे। मैं ने खड़े हो कर रेहड़ी को लगे दो स्कूटर जैसे हैंडलों को स्कूटर की तरह पकड़ लिया। अब दो नर्सें इस रेहड़ी को धीरे धीरे धकेलने लगीं और सारे वार्ड के दो चक्कर लगाए। अपनी अपनी बैडों पर पड़े मरीज़ तालियां बजा रहे थे और मुझ को चीअर अप्प कर रहे थे।
बस आज की एक्सरसाइज़ इतनी ही थी। दूसरे दिन भी दो नर्सें आईं और मुझे वीह्ल चेअर में बिठा कर जिम्नेज़ियम रूम में ले आईं। यहां मुझ जैसे मरीजों के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं जो इस तरह बनी थी कि एक तरफ छै स्टैप थे और ऊपर समतल प्लैट फ़ार्म बना हुआ था और दुसरी तरफ उतरने के लिये फिर छै स्टैप थे। मुझे कहा गया कि मैं एक तरफ से ऊपर जाऊं और दुसरी तरफ से नीचे उतरूं। ऐसा मैंने दो दफा किया। नर्सें, वैरी गुड़ एक्सेलैंट बोलने लगी और मुझे फिर वार्ड में ले आईं। तीसरे दिन नर्सें एक वाकिंग फ्रेम ले आईं और मुझे इसका सहारा लेकर कुछ स्टैप चलने को कहा। कोई पंदरां मिंट मैं वार्ड में धीरे धीरे चला और मरीज़ तालियां बजा रहे थे। मैं सोच रहा था कि यह भी तो एक कल्चर ही थी कि सभी गोरे मरीज़ तालियां बजाकर मेरा हौसला बड़ा रहे थे और दुसरी तरफ मेरा अपना इंडियन भाई एक धर्मी होकर भी मुझ से बोला नहीं था। तेरह दिन हो गए थे और अभी तक मुझे खाने को नहीं दिया गया था। आज सुबह डाक्टर ने हदायत दे दी थी कि मुझे आज सलाद की प्लेट और साथ में हैम (स्लाइस्ड स्टीम्ड मीट) दिया जाए। यह दिन भी भूलने वाला नहीं है, जब टेबल पर मेरे सामने एक बड़ी सलाद की प्लेट और काफी बड़े बड़े हैम के चार पांच स्लाइस रखे हुए थे तो देख कर ही आँखों में चमक आ गई। लैटिस, टमाटर, रैडिश और कीऊकम्बर के स्लाइस खाकर मज़ा आने लगा। खाने की कीमत एक भूखे को ही मालूम हो सकती है। तेरह दिन बाद यह खाना आज तक भूलता नहीं है।
क्योंकि जसविंदर और संदीप काम पर जाते थे, इस लिए कुलवंत ही दिन में दो दफा मुझे मिलने आती थी। मेरे ऑपरेशन के बारे में, मैंने कुलवंत को बताया हुआ था कि वोह किसी को बताये नहीं क्योंकि मैं किसी को तकलीफ देना नहीं चाहता था, फिर भी कुलवंत ने भुआ, गिआनो बहन और बहादर के घर टेलीफोन कर ही दिया था। बहादर और कमल उस वक्त इंडिया गए हुए थे और उनका बेटा हरदीप मुझे मिलने के लिए आया था। भुआ निंदी और गिआनों बहन अपने छोटे बेटे बलवंत के साथ भी आई थी। मेरी फितरत है कि मैं खामखाह किसी को कष्ट नहीं देना चाहता था और मैंने कुलवंत को भी कह दिया था कि वोह सिर्फ शाम को बच्चों के साथ ही आया करे और दिन के वक्त उस ने आना छोड़ दिया था। कुछ दिन बाद मेरी बैड एक कमरे में शिफ्ट कर दी गई। अब यह कमरा सिर्फ मेरे लिए ही था। एक टेबल, एक चेअर, और एक कैबनेट मेरी बैड के साथ थी। कैबनेट में मैंने अपना सामान रखा हुआ था, कुछ कपडे, कुछ किताबें मैगज़ीन बगैरा थे। अभी तक तो हस्पताल की ओर से दीया हुआ गाऊन ही मैंने पहना हुआ था और स्पैशल चपलें भी हस्पताल की ओर से थी, मेरे खुद के कपडे तो सिर्फ हस्पताल से डिस्चार्ज होते समय ही मैंने पहनने थे। इस कमरे में मुझे एक प्राइवेसी मिल गई थी।
अब मुझे खाना मिलना शुरू हो गया था। सुबह उठते ही चाय काफी आ जाती, एक घंटे बाद कोई सीरियल आ जाता, जिस में कभी बीटाबिक्स तो कभी कॉर्नफ्लेक्स होते। बाद में फिर चाय काफी आ जाती। क्योंकि अब मैं खाना खाने लगा था तो शौच की हाजत भी होने लगी थी, जिस के लिए अब मुझे बैड पे शौच करने की जरूरत नहीं थी। टॉयलेट और शावर मेरे कमरे में ही था। जब मुझे टॉयलेट जाना होता, मैं बैल बजा के नर्स को बता देता और वोह धीरे धीरे मुझे टॉयलेट सीट पर बिठा देती और दरवाज़ा बंद करके चले जाती और कह जाती कि तसल्ली होने पर मैं बैल दबा दूँ। जब मैं फ़ार्ग हो जाता तो बैल दबा देता और नर्स आ जाती। मैं दोनों तरफ के हैंडल पकड़ कर मुश्किल से उठता और नर्स बच्चों की तरह मुझे साफ़ कर देती और ऐंटीसैप्टिक क्रीम लगा देती और मैं टॉयलेट से बाहर आकर या तो बैड पे लेट जाता या कुर्सी पे बैठ जाता। नर्स मेरी पीठ के पीछे दो तकिये रख जाती। कुछ दिन बाद सुबह नर्स आई और मुझे मेरी कैबनिट से टूथ पेस्ट और ब्रश निकाल कर मुझे दांत साफ़ करने में मदद करने लगी। इसके बाद वोह मुझे नहलाने लगी, जिसको वे स्पंज करना बोलते हैं।

चलता. . . . . . . . . .