धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

रक्षाबन्धन – पौराणिक मान्यता

बहुत पुरानी मान्यता है कि वैदिक युग में महाबली दानवराज बली को लक्ष्मीजी ने सावन पूर्णिमा के दिन रक्षासूत्र बांधकर अपने पति श्रीविष्णु भगवान को बाली की दासता से मुक्त कराया था –दानवराज बली महान दानी, शूरवीर, धर्मपारायण, सहृदय प्रजापालक और तीनों लोकों में सबसे अधिक प्रतापी और यशस्वी राजा थे। दानव कुल में जन्म लेने के बावजूद वे देवताओं से ईर्ष्या नहीं करते थे लेकिन देवराज इन्द्र उनसे जलते भी थे और सदैव उनका साम्राज्य हड़पने की चेष्टा भी करते थे। बली को परेशान करने का एक भी अवसर वे हाथ से जाने नहीं देते थे। तंग आकर बली ने इन्द्रलोक पर आक्रमण कर दिया। भयंकर युद्ध हुआ जिसमें देवराज इन्द्र बुरी तरह पराजित हुए। महाराज  बली ने अपने राज्य का विस्तार तीनों लोकों तक कर लिया। इसके उपलक्ष्य में उन्होंने शुक्राचार्य से एक महान यज्ञ कराने का अनुरोध किया। निर्धारित तिथि पर यज्ञ आरंभ हुआ। उस यज्ञ की विशेषता थी कि यज्ञ के दौरान कोई भी याचक मनोनुकूल दान प्राप्त कर सकता था। राजा बली ने किसी को निराश नहीं किया। जिसने जो मांगा, राजा बली ने दिल खोलकर दिया। तीनों लोकों के राजा के पास आखिर कमी किस बात की थी? राज्य से च्युत देवराज इन्द्र भटकते भटकते श्रीविष्णु के पास पहुंचे और अपना खोया साम्राज्य पुनः दिलाने की प्रार्थना की। गंभीर चिन्तन-मनन हुआ और यह निर्णय लिया गया की भगवान स्वयं राजा बली के यज्ञमंडप में जायें और दान में देवलोक प्राप्त कर इन्द्र को समर्पित कर दें। श्रीविष्णु ने देवताओं और देवगुरु बृहस्पति की सलाह स्वीकार की और वामन ब्राह्मण रूप धारण कर राजा बली के यज्ञमंडप में दान प्राप्त करने हेतु उपस्थित हुए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी दिव्य दृष्टि से भगवान को पहचान लिया और बली के कान में पुसफुसाकर सलाह दी – “सामने खड़ा बौना ब्राह्मण कोई साधारण बटुक नहीं है। साक्षात नारायण वेश बदलकर उपस्थित हुए हैं। निश्चित रूप से पराजित देवताओं ने किसी षडयंत्र के तहत इन्हें यहां भेजा है। तुम इन्हें किसी तरह के दान का कोई भी वचन मत देना, अन्यथा संकट में पड़ जाओगे।” लेकिन राजा बली ने अपने गुरु की सलाह अनसुनी कर दी। पूर्व में की गई घोषणा से वह महादानी मुकर कैसे सकता था? उन्होंने अपने गुरु को उत्तर दिया -“मुझसे दान प्राप्त करने के लिये अगर स्वयं नारायण उपस्थित हैं, तो इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य और क्या हो सकता है? अगर दान में वे मेरा प्राण भी मांगते हैं, तो मैं सहर्ष दूंगा। वचन भंग की अपकीर्ति से नारायण के हाथों प्राण गंवाना मैं श्रेयस्कर मानता हूं।” बली ने ब्राह्मण को प्रणाम किया और आने का प्रयोजन पूछा। वामन देव ने दान प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। राजा बली की स्वीकृति प्राप्त होते ही वामन देव ने तीन पग धरती की मांग की जिसे राजा बली ने सहर्ष स्वीकार किया। वामन देवता को विराट रूप धारण करने में एक क्षण भी नहीं लगा। श्री नारायण ने दो पगों में आकाश और पाताल नापने के बाद राजा बली से पूछा कि वे अपना तीसरा पग कहां रखें। दो पगों में संपूर्ण ब्रह्माण्ड नापने के बाद अब जगह ही कहां शेष थी। राजा बली लेट गये और आग्रह किया कि श्रीनारायण अपना तीसरा पैर उनकी छाती पर रखें। बली ने अपना वचन पूरा किया। श्रीनारायण ने प्रसन्न होकर उन्हें ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े दानवीर की उपाधि से विभूषित किया और पाताल लोक का राज वापस कर दिया। इस तरह इन्द्र को अपना राज प्राप्त हुआ और राजा बली को भी एक बड़ा साम्राज्य मिला। राजा बली की दानवीरता से प्रसन्न श्रीनारायण ने बली से मनचाहा वर मांगने का आग्रह किया। राजा बली ने हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक वर मांगा -“हे नारायण! हे हे जगत्पिता! आपको कोटि-कोटि प्रणाम! आपके दर्शन पाकर मेरा जीवन सफल हुआ। परन्तु इस क्षण भर के दर्शन से मेरा मन अतृप्त है। मैं नित्य आपका दर्शन करना चाहता हूं। इसलिये हे नारायण। आप मेरे महल का दरवान बनना स्वीकार करें।”श्रीनारायण ने ‘एवमस्तु’ कहा और राजा बली के चौकीदार बन गये। वे वापस विष्णुलोक को गये ही नहीं। राजा बली की सेवा में रहते-रहते श्रीनारायण को कई वर्ष बीत गये। उधर देवलोक में हाहाकार मच गया। देवी लक्ष्मी का रोते-रोते बुरा हाल था। अन्त में देवगुरु बृहस्पति ने लक्ष्मीजी को राजा बली के पास जाकर रक्षासूत्र बांधने का परामर्श दिया। लक्ष्मीजी राजा बली के पास पहुंची। अपना परिचय देते हुए उन्होंने रक्षा सूत्र बांधने का निवेदन किया। बली ने उनका भाई बनना स्वीकार किया और अपनी कलाई बहन के सामने कर दी। लक्ष्मीजी ने राजा बली को राखी बांधी। राजा बली ने अपनी बहन को ढेर सारे उपहार दिये परन्तु लक्ष्मीजी ने ग्रहण नहीं किया। राजा ने उनसे मनचाहा उपहार मांगने का आग्रह किया। लक्ष्मीजी मौका कहां चूकने वाली थीं। उन्होंने अपने पति श्रीनारायण जी को चौकीदारी से मुक्त कर उन्हें सौंपने की इच्छा व्यक्त की जिसे राजा बली ने सहर्ष स्वीकार किया। इस तरह सावन शुक्ल पूर्णिमा को श्रीनारायण को देवी लक्ष्मी ने दासता के बन्धन से सदा के लिये मुक्त कराया। तभी से यह शुभ दिन ‘रक्षाबन्धन’ के पावन पर्व के रूप में मनाया जाता है। रक्षा सूत्र बांधते समय राजा बली के सम्मान में यह मन्त्र पढ़ने की परंपरा है -येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।तेन त्वाम प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचलः॥जिस रक्षा सूत्र से राजा बली बांधे गये, उसी से मैं तुम्हें बांधती हूं। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे; तुम अटल होवो।

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.