बालकविता “मोर नाचते पंख पसारे”
बादल मचा रहे हैं शोर।
नाच रहा जंगल में मोर।।
बहुत डराते काले बादल।
लेकिन मोर हुए हैं पागल।
बदरा आये साँझ-सकारे।
मोर झूमते पंख पसारे।।
पिहू-पिहू की भाषा बोलें।
राज़ प्रेम के अपने खोलें।।
देख मोरनी हर्षित होती।
आपा-धापा अपना खोती।।
मन में है बस यही पिपासा।
कभी न जाये अब चौमासा।।
देते मोर यही सन्देशा।
हरा-भरा हो देश हमेशा।।
चातक कभी रहे ना प्यासा।
पूरी हों सबकी अभिलाषा।।
चारों ओर रहे हरियाली।
जन-जीवन में हो खुशहाली।।
मिलकर खुशियाँ सभी मनायें।
लोग हमेशा नाचें-गायें।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)