पितरों को स्मरण करने का महापर्वःपितृपक्ष
लौकिक और अलौकिक जगत की अवधारणा सभी धर्मों में मान्य की गई है।लौकिक जगत जिसमें हम निवास कर रहे हैं और अलौकिक जगत वह है जो हमें दिखाई नहीं देता किन्तु हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पितृलोक भी उस अलौकिक जगत का ही हिस्सा है।पितृ लोक में विचरण करने वाले पितृजनों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने की मान्यता प्रचलित है।ऐसा नहीं है कि हिन्दू धर्मावलम्बी ही ऐसा करते हैं।भिन्न-भिन्न रूप में श्रद्धापूर्वक स्मरण करने की परम्परा अन्य मतावलम्बियों,धर्मावलम्बियों में भी प्रचलित है।
हिन्दू धर्म में भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक पितृ पक्ष का विधान है।इन दिनों में पितरों को जल अर्पित कर उनकी मृत्यु तिथि पर श्राद्ध कर्म किया जाता है।माता-पिता तथा अन्य पितृ जनों की मृत्यु के पश्चात उनके लिए श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहा जाता है।
“श्रद्धया इदं श्राद्धय”,अर्थात जो श्रद्धा से किया जाए वही श्राद्ध है।हिन्दू धर्म में पितृ जनों की सेवा को ही सबसे बड़ी पूजा माना गया है।संभवतः इसीलिए हिन्दू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई है।यह अवधारणा भी इसी कारण रही होगी कि पुत्री विवाह पश्चात अपने ससुराल चली जाती है और इसी कारण पुत्र को यह दायित्व सौंपा गया है।पितरों को मृत्यु पश्चात विस्मृत न कर दिया जाए,इसीलिए उनका श्राद्ध करने का विधान किया गया है।हिन्दू धर्मग्रन्थों में मनुष्य पर मुख्य रूप से तीन प्रकार के ऋण माने गए हैं-पितृ ऋण,देव ऋण तथा ऋषि ऋण।इनमें पितृ ऋण सर्वोपरी है।पितृ ऋण में माता-पिता के अतिरिक्त वे सभी बुजुर्ग भी शामिल हैं जिनकी व्यक्ति के जीवन धारण करने तथा उसके विकास में सहभागिता रही है।
पितृ पक्ष में मन,कर्म और वचन से संयम बरतने की अपेक्षा की जाती है।पितरों का स्मरण कर उन्हें जल अर्पित किया जाता है, निर्धन और ब्राह्मणों को दान दिया जाता है।मान्यता है कि जो अपने पितरों को तिल मिश्रित जल से तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं,उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।हिन्दू मान्यता के अनुसार जन्म-मृत्यु तथा पुनः जन्म निश्चित है।सभी को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है।जन्म मृत्यु का क्रम निरन्तर चलता रहता है।इसी कारण पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष तथा तीन पीढ़ियों तक के ही मातृ पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण का विधान है।तर्पण में प्रथमतः दिव्य पितृ तर्पण,देव तर्पण,ऋषि तर्पण तथा दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात स्व पितृ तर्पण का विधान है।इसमें सभी ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों तथा सजीव-निर्जीव प्राणी तथा वस्तुओं को भी तर्पण देने का विधान है। शास्त्रोक्त मान्यता के अनुसार पितृ पक्ष में अपने पितरों के निमित्त यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किया जाता है।इससे पितृ संतुष्ट होते हैं तथा इससे व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।पितरों का उचित रूप से क्रियाकर्म न होने, श्राद्ध नहीं किये जाने से पितृ दोष लगने की मान्यता है।पितृ दोष से निजात पाने के लिए हमें अपने पूर्वजों से क्षमा याचना इन दिनों में करना चाहिए।हम अपने पूर्वजों का स्मरण करते रहें,भावी पीढ़ी भी अपने पूर्वजों के बारे में भिज्ञ हो,इसके लिए प्रतिवर्ष पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध और तर्पण यथाशक्ति अवश्य ही किया जाना चाहिए।
यह भी पौराणिक मान्यता है कि पितृ पक्ष में हमारे पूर्वज मोक्ष प्राप्ति की कामना लेकर अपने परिजनों के निकट अनेकों रूप में आते हैं।इस महापर्व में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता ज्ञापित करने तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध किया जाना चाहिए।ज्योतिषीय गणना के अनुसार जिस तिथि में पूर्वजों का निधन होता है, इन सोलह दिनों में उसी तिथि पर श्राद्ध किया जाना चाहिए।पौराणिक मान्यता के अनुसार उसी तिथि में पुत्र या पौत्र द्वारा श्राद्ध किये जाने पर पितृ लोक में भ्रमण करने से मुक्ति मिलती है और पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।अतः पितृ पक्ष में धार्मिक मान्यता के अनुसार तर्पण एवं श्राद्ध तो किया ही जाना चाहिए।इसमें धार्मिक मान्यता के साथ तार्किक आधार भी स्पष्ट है कि हम तथा हमारी भावी पीढ़ी अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए उनके बारे में जानकारी भी रखे।
प. प्रदीप उपाध्याय,१६,अम्बिका भवन,बाबुजी की कोठी,उपाध्याय नगर,मेंढकी रोड़,देवास,म.प्र.
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