कविता : व्यथा पहाड़ की
विकास की छाती पर
रख सिर रोता है पहाड़
न देखे उसकी दरकन
न ही सुने दहाड़ ।।
नंगी हो गयी उसकी काया
प्रस्फुटन दब कर सोई
पर्वतो से निकल निकल
नदिया भी बहुत रोईं
उसकी गति के रास्ते
रोकते किवाड़ ।।
न दुर्लभ पथ न बिहड़पन
सुषमा न न्यारी प्यारी
रहा लुभावन अब वो मंजर
रही न मखमली हरियाली
मानवो के लालच ने
सब कुछ दिया बिगाड़ ।।
खाली किये पलायन ने
पर्वत के संगीत
मारे मारे ढूंढते
इत उत बादल मीत
पहले जैसा न रहा
स्रष्टा का वो लाड़ ।।
— सुशीला जोशी