ग़ज़ल
रक्षा के’ नाम पर सभी’ लोगों में जोश है
पर रहनुमा तमाम अभी तक खमोश हैं |
ये जिन्दगी तमाम रही मय-ओ-नोश है
वीरान मयकदा से’ दुखी मय फ़रोश है |
इतना प्रचार क्यों नयी’ कानून का अभी
क्या सच नहीं कि यंग नवा-ए-सरोश है |
वो पाँच साल तक नहीं कोई मिले जनाब
अब घूमते यहाँ वहाँ’ खानाबदोश है |
संसार के नियम सभी’ प्रेमी खिलाफ हैं
यां प्रेयसी तमाम बनी बुर्का’ पोश है |
‘काली’ नहीं लिया कभी’ जोखिम वो’ प्यार का
दागे फ़िराके’, वस्ल न जोश-ओ-ख़रोश है |
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शब्दार्थ : मय-ओ-नोश=मदिरा पान की लिप्सा
मयकदा=मदिरालय, मय-फ़रोश=शराब बेचने वाला
यंग=कानून, नवा-ए-सरोश=शुभ सन्देश वाहक
दागे फ़िराके’= वियोग का कष्ट,
वस्ल = मिलन; जोश-ओ-ख़रोश = अत्यधिक
आनंद
कालीपद ‘प्रसाद’