ग़ज़ल
लय अगर है तो क्या बहर न हुई।
तुम न आए तो क्या सहर न हुई।।
ऊँची लहरें क्या सिर्फ़ लहरें हैं।
एक नन्ही लहर लहर न हुई ?
क्या ज़हर को ही बस ज़हर मानें,
तल्ख़ जो है ज़बाँ, ज़हर न हुई ?
सो के गर उट्ठा कोई बारह बजे,
क्या सहर है ये, दोपहर न हुई।
भटकनों में अज़ल से है इन्सान,
आज तक भी कहीं ठहर न हुई।
पैसे वाले तो पा गए नदियाँ,
निर्धनों को तो इक नहर न हुई।
गाँव में जा के रो रहा डॉक्टर,
हाय पोस्टिंग किसी शहर न हुई।
लम्बी बहरों में क्यों लिखे ‘चन्द्रेश’
मुख़्तसर बहर क्या बहर न हुई।
— चन्द्रकांता सिवाल “चन्द्रेश”