लेख– पुश-अप पर नहीं, जनहितार्थ पर ध्यान देना होगा।
जो स्थिति 2014 के आम चुनाव के वक़्त उभर कर भाजपा के लिए आई थीं। शायद वह अब फिसल रहीं है। फ़िसलन दिखे भी क्यों न। सत्तासीन दल के मंत्री जो अवाम की भलाई का काम छोड़कर पुश-अप में व्यस्त हैं। वायदे की लडी जो लगाई गई थी। अब उसके प्राण-पखेरू निकलते नज़र आ रहें हैं। क्या वायदे नहीं किए गए थे चुनावी महफ़िल में। आंधी तो आई थी व्यक्ति- विशेष की , लेकिन हवा का वेग हर वक़्त एकसमान ही हो। यह संभव नहीं। लोकतंत्र में हर दल झूठे रथ पर सवार हो चलें है, सत्ता हथियाने के लिए जो चिंता का विषय होना चाहिए। संवैधानिक और जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए। हर वक़्त अगर कहा जाए, कि किसी एक व्यक्ति की छवि के आसरे नाव को नदी के किनारे लगाया जा सकें, तो वह कदापि संभव नही हो सकता। आज भाजपा की स्थिति क्या हो चली है। वह किसी से छिपी नहीं है। बड़े-बड़े दावे और इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़कर हर समय सत्ता के करीब नहीं जाया जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी बीते कुछ वर्षों में उभरकर हमारे सामने आ रहीं है, कि उसके पास बूथ स्तर कार्यकर्त्ताओं की एक लंबी फेहरिस्त है। साथ में राज्य स्तरीय राजनीति में बेहतर चेहरा। फ़िर भी पार्टी कोई भी चुनाव हो। सिर्फ़ एक चेहरे के इर्द-गिर्द ही घूम रही है। ऐसे में बड़ा प्रश्न तो यहीं है, जब कोई एक कार्यक्रम बार-बार देखते हुए उब जाता है। फ़िर वह एक चेहरे के इर्दगिर्द घूमती राजनीति को कब तक देखना पसंद कर सकता है?
भाजपा ने जिस हिसाब से पिछले कुछ समय में उपचुनाव के दौरान अपनी लुटिया डुबोई है। उससे उसे अब यह एहसास तो हो जाना चाहिए, कहीं न कहीं पार्टी का विचार और कार्यशैली सही रास्ते पर नहीं चल रही। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी पिछले चार वर्षों के दरमियान सिर्फ़ व्यक्ति-विषय के हाथों में सिमटती जा रहीं है। देश की 4 लोकसभा और 10 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे भी अब साफ हो चुके हैं। उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड में विपक्षी दलों के महागठबंधन ने भाजपा को करारी मात दे दी है। उत्तर प्रदेश की कैराना जिसे 2019 का लिटमस पेपर माना जा रहा था, वहां पर भी भाजपा फ़ेल साबित हो गई है। पहले योगी आदित्यनाथ की संसदीय सीट गोरखपुर, साथ में केशव प्रसाद मौर्या की सीट फूलपुर में हार। आख़िर कुछ तो राजनीतिक संकेत दे रहीं है। एक के बाद एक उपचुनावों में केंद्रीय सत्तासीन पार्टी की हार ने वर्तमान राजनीति को कई सारे क़सीदे पढ़ाने का कार्य किया है। जिसके मूल को अब भाजपा को भी समझना होगा। वरना आने वाले वर्षों की राजनीति में कहीं भाजपा को सत्ता से बाहर होने का खामियाजा न भुगतना पड़ जाए। उपचुनावों में भाजपा की हार ने कुछ प्रश्न दबे स्वर में खड़ा करने का काम किया है। पहला प्रश्न यहीं, आख़िर आज सत्ता में रहने के चार वर्ष बीतते-बीतते ऐसी स्थिति क्यों आ गई, कि उसके सहयोगी दल उससे अलग हो रहें हैं। इस पर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को विचार-विमर्श करना होगा। दूसरा प्रश्न यह कि शायद विपक्षी एकता इसी तरह बढ़ती रही, तो 2019 की राह भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। विपक्षी एकता भले ही किसी भी शर्त पर हो रही हो। वह भाजपा के मुसीबत बन सकती है। साथ में अगर भाजपा देश बदलने के दावे करते हुए नहीं थक रही, फ़िर उपचुनावों में उसे हार क्यों उठानी पड़ रही है।
ऐसे में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में हम यह मान सकते कि बीते दिनों के दरमियान कुछ ऐसी घटनाएं घट रही। जिसकी आवाज़ औऱ खनक के कई मायने औऱ अर्थ निकट भविष्य में देखने को मिल सकते हैं। जिससे वर्तमान समय की चल रही राजनीति तो प्रभावित होगी ही। साथ में उसका व्यापक फ़लक़ पर असर आने वाले वर्षों में भी दिखाई देगा। बात अगर की जाएं, तो बेलगाम होते घोड़े पर चाबुक चलाना ज़रूरी होता है। वह उपचुनावों में चलता हुआ दिख रहा है, क्योंकि भाजपा का शासन सम्राज्य जिस तऱीके से बढ़ रहा है, उसके कारण वह अपने मद में मदहोश होती दिख रही है। उसे सिर्फ़ विपक्ष मुक्त भारत की परिकल्पना ही दृष्टिगोचर हो रही थी। यह आंकलन करना शायद उसकी प्राथमिकता से बाहर हो गया है, कि कैसे उसकी नीतियां भी पिछली सरकारों की तरह पिछले चार वर्षों के बीच काग़ज़ी हो चली है। पहले अगर 29 वर्षों की लहर एक वर्ष के भीतर के शासनकाल के दौरान ढह गई। उसके बाद अब चार वर्ष पूरे होने का जो तोहफा जनता ने भाजपा को दिया। उसने भाजपा को अपनी नीतियों पर नए सिरे से विचार करने पर मजबूर किया है। इसके इतर अगर देश के प्रधानसेवक ने पहले साफ़ कर दिया था, कि आख़िरी वर्ष सिर्फ़ प्रचार- प्रसार का समय होता है। तो क्या उम्मीद की जाए, अब आखिरी वर्ष में जनता से जुड़े मुद्दों पर काम नहीं होगा। तो क्या ऐसे में मान लिया जाए, रहनुमाई व्यवस्था पुश-अप करती रहेगी। प्रधानसेवक विदेश यात्रा करते रहेंगे, और अवाम देश की सिर्फ़ चुनावी वादों के तले जिंदगी गुज़र- बसर करने को विवश होती रहेगी। अगर ऐसी स्थिति में देश आगे बढ़ चला, तो अगली बार सत्ता की चाबी भाजपा के हाथों से छिटक सकती है। जिसकी बानगी उपचुनाव के नतीजों से सामने आता दिख रहा है। तो अब अगर भाजपा को अपने पक्ष में लहर निकट भविष्य में बनाए रखनी है, तो व्यवस्था में सुधार की दिशा में क़दम बढ़ाना होगा। जिससे देश की सूरत बदल सकें। युवाओं को रोजगार मिल सकें। स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार हो। महंगाई पर लगाम लग सकें। ट्रेन समय पर चले। इन सब पर ध्यान देना होगा, नहीं तो हवा का रुख़ बदल तो रहा ही है।