कविता

मधुगीति – है ज्ञान औ अज्ञान में!

है ज्ञान औ अज्ञान में,
बस भेद एक अनुभूति का;
एक फ़ासला है कर्म का,
अनुभूत भव की द्रष्टि का !
लख परख औ अनुभव किए,
जो लक्ष हृदयंगम किए;
परिणिति क्रिया की पा सके,
फल प्राप्ति परिलक्षित किए !
जो मिला वह कुछ भिन्न था,
सोचा था वह वैसा न था;
कुछ अन्यथा उर लग रहा,
पर प्रतीति सुर दे रहा !
आभोग का सागर अगध,
उपलब्धि की गागर गहन;
जिमि ब्रह्म में मिल फुरके मन,
जग बोध करता सहज क्षण !
जो अजाने को जानता,
उसका जगत पहचानता;
‘मधु’ के रचयिता रासता,
उनकी प्रभा सब भासता !
—  गोपाल बघेल ‘मधु’