त्रिया चरित्र
कहने को तो स्त्रियों को समाज मे बराबरी का अधिकार है ये बोला जाता है पर वास्तविकता में भोग विलास के साधन तथा किसी निजी संपत्ति से अधिक नही माना जाता। चूंकि पुरुष है इसलिए उन्हें अदृश्य कई अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। पुरुषों की इच्छा रहती है कि उनके द्वारा दिये गये सभी आदेशों का पालन हो। आदेश पालन न होने की अवस्था मे उनके पौरूष को धक्का लग जाता है। उसी स्थान पर अगर कोई स्त्री विनय निवेदन भी करे तो उसको स्वीकार करना या अस्वीकार करना पूर्णतया पुरुषों का अधिकार क्षेत्र में आता हैं।
“त्रिया चरित्र कोई नही समझा” ये पुरुषों का सबसे महत्वपूर्ण कवच है। जहाँ भी लगता है कि उसका पौरुष स्त्री के आगे कमतर हो रहा है ये कवच पहनकर पुरुष पुनः स्त्रियों को समझ अपने पौरुष को दिखाने से नही चूकता।
देखा जाय तो समाज मे स्त्रियों का कुछ भी नहीं, अग़र वो अपनी सांस भी मर्जी से ले तो उसे पुरुषों के द्वारा हीन नज़रों से देखा जाने लगता है। समाज में कहने को तो स्त्री, लक्ष्मी, सरस्वती और शक्ति स्वरूपा मानते है पर वास्तविक स्थिति कुछ और है। उस पर त्याग और धैर्य की देवी होने का आवरण डालकर उसकी सभी इच्छाओं का शोषण किया जाने लगता है। सौरभ दीक्षित “मानस”