गीतिका/ग़ज़ल

एक रोटी के लिये

रात दिन जो एक करते, एक रोटी के लिए।
आज वो ही जन तरसते, एक रोटी के लिए।

अन्न दाता देश के ये, हल चलाते हैं सदा।
फिर भी गिरवी खेत रखते, एक रोटी के लिए।

खून है सस्ता मगर, महँगी बहुत हैं रोटियाँ।
पेट कटते अंग बिकते, एक रोटी के लिए।

जो गए सपने सजाकर, गाँव के राजा शहर।
बन कुली सिर बोझ धरते, एक रोटी के लिए।

दीन बचपन रोटियों को, गर्द में है ढूँढता।
गर्द पर ही दिन गुजरते, एक रोटी के लिए।

पूछते हैं लोग उनसे, क्यों नहीं अक्षर पढ़ा।
भूख से जो गीत गढ़ते, एक रोटी के लिए।

आज यदि हावी न होती, भूख अपने देश पर।
लोग क्यों परदेस बसते, एक रोटी के लिए।

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- [email protected]