एक रोटी के लिये
रात दिन जो एक करते, एक रोटी के लिए।
आज वो ही जन तरसते, एक रोटी के लिए।
अन्न दाता देश के ये, हल चलाते हैं सदा।
फिर भी गिरवी खेत रखते, एक रोटी के लिए।
खून है सस्ता मगर, महँगी बहुत हैं रोटियाँ।
पेट कटते अंग बिकते, एक रोटी के लिए।
जो गए सपने सजाकर, गाँव के राजा शहर।
बन कुली सिर बोझ धरते, एक रोटी के लिए।
दीन बचपन रोटियों को, गर्द में है ढूँढता।
गर्द पर ही दिन गुजरते, एक रोटी के लिए।
पूछते हैं लोग उनसे, क्यों नहीं अक्षर पढ़ा।
भूख से जो गीत गढ़ते, एक रोटी के लिए।
आज यदि हावी न होती, भूख अपने देश पर।
लोग क्यों परदेस बसते, एक रोटी के लिए।
-कल्पना रामानी