थी ही थी
उलझने ढेर सारी होने वाली ही थी
समय की गति तेज होने वाली ही थी
जवानी के दिन थे ,मस्तानी रातें थी
बच्चें-रिश्तेदारों की जिम्मेदारी थी
रूत भी आने – जाने वाली ही थी
समयाभाव-शिकवा हमसफर को थी
विरहन जिंदगी मिलने वाली ही थी
सरोष राह बदल जाने वाली ही थी ….
वाह! बहुत खूब !!
आभारी हूँ …. बहुत बहुत शुक्रिया आपका
बहुत सुन्दर प्रस्तुति विभा जी .
आभारी हूँ …. शुक्रिया आपका