कविता

थी ही थी

 

उलझने ढेर सारी होने वाली ही थी
समय की गति तेज होने वाली ही थी
जवानी के दिन थे ,मस्तानी रातें थी
बच्चें-रिश्तेदारों की जिम्मेदारी थी
रूत भी आने – जाने वाली ही थी
समयाभाव-शिकवा हमसफर को थी
विरहन जिंदगी मिलने वाली ही थी
सरोष राह बदल जाने वाली ही थी ….

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

4 thoughts on “थी ही थी

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह! बहुत खूब !!

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      आभारी हूँ …. बहुत बहुत शुक्रिया आपका

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      आभारी हूँ …. शुक्रिया आपका

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