कवितापद्य साहित्य

आक्रामक भीड़

आक्रमक भीड़ का कोई चरित्र नही होता।
ये तो वो कठपुतली है
जो नायक के इशारों पर नाचती है।

पर्दे के पीछे डोर कोई और खिंचता है और ये आक्रामक हो जाती है।

इस का कोई निजी मंसूबा भी नही होता।
जिस के हाथ मे बस उसी की गुलाम।

खुद गुलामी में दबी है और नारे आजादी के लगाती है।
निर्दोषों का खून तक पी जाती है और फिर भी इस कि प्यास नही बुझती।

प्रहार पर प्रहार करती है पर थकती नही है।
शायद ये किसी धर्म के नही होते
क्योंकि धर्म चाहे कोई भी हो किसी दूसरे धर्म का खून नही करता।

धर्म कभी गलत मजहब नही बताता,
न ही निर्दोषों की बलि की सहमति देता है।

काफिर है वो धर्म के नाम पर कत्ले आम करते है।
खुद तो हैवानियत से जहनुम की आग में जलते और दूसरों को भी उस का भागी बना लेते हैं।

संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात

संध्या चतुर्वेदी

काव्य संध्या मथुरा (उ.प्र.) ईमेल [email protected]