जुगनू ।
अमावस्या की रात में आशा की निगाहें आंगन में पसरे अंधेरे को देख घबरा रही थी। पता नहीं क्यों एक अजीब सा डर मन को विचलित कर रहा था, नींद आंखों से कोसों दूर थी…लग रहा था आज यूंही रात कटेगी। रोने को मन कर रहा था,बात कुछ खास भी नहीं थी घर में सब ठीक ही चल रहा था पर सिर्फ घर ही तक तो हमारा फर्ज नहीं खत्म होता ऐसी बातें भी दिमाग में उथल पुथल कर रहीं थीं। अखबार और टेलीविजन पर रोज़ के समाचारों ने उसके दिमाग में अजीब सा भय पैदा कर दिया था देश के प्रति….फिर मन में ख्याल आया मुझे क्या लेना देना सरकार और नेता किसलिए हैं ? देश की फ़िक्र तो उन्हें करनी चाहिए, आंख लगने ही लगी थी कि दूर एक बिंदु जैसी रोशनी उसकी तरफ बढ़ती दिखी। आशा के मन को थोड़ी राहत मिली फिर देखा कुछ जुगनू घर के आंगन के पास ही आ गए थे, बहुत अच्छा लगा और लगा कि नन्हीं सी रोशनी भी अंधेरे में सुकून दे रही है तो मन में अचानक से ख्याल आया कि नन्हा सा सकारात्मक योगदान देश के लिए मेरी तरफ से हो तो थोड़ा सा अंधेरा तो छटेगा। अब नींद भी आने लगी थी।