क्या कोरोना विषाणु बूढ़े-बुज़ुर्गों के लिए मृत्युदण्ड बनकर आया है?
यह तो अब एक जानी-मानी बात बन गई है कि इटली में कोरोना के संक्रमण से मरने वालों की संख्या जितनी भी रही हो पर इनमें एक बड़ा प्रतिशत बूढ़े-बुजुर्गों का रहा है– वह जो 60 से 80 वर्ष की आयु के दायरे में आते हैं।
जब हम इटली से आने वाली सूचनाओं को पढ़ते हैं या सुनते हैं तो हमारा मन करुणा से भर जाता है।संक्रमण से जूझते ये बुज़ुर्ग निरे एकांत में मरे। उनके समीप कोई नहीं था।
संक्रमण इतना व्यापक है कि समूचा इटली बंद हो गया था ,उनके परिजनों को घर से निकलने की अनुमति नहीं थी और एक सीमा के बाद चिकित्सकों ने भी उन्हें मरण के लिए त्याग दिया,उनका कफ़न दफ़न सरकार ने कराया, कब्रिस्तान में जगह नहीं होने के कारण फ़ौज के ट्रक उनके शवों को ढोकर अन्यत्र ले गए…।
ये सब सुनकर मैं गहरी सोच में डूब गई, एक लम्बा जीवन, हज़ार क़िस्म के संघर्ष और स्वप्न, बीसियों इच्छाएं, अनगिनत स्मृतियां, और तब एक दिन सहसा ऐसी निष्प्रभ मृत्यु…!!!
ऐसे समय में *चन्द्रकान्त देवताले* की एक कविता याद आई—
“किस तरह और क्या सोचते हुए ,
मरूंगा मैं कितनी मुश्किल से
सांस लेने के लिए भी जगह होगी या नहीं ,
खिड़की से क्या पता कब दिखना बंद हो जाएं ,
हरी पत्तियों के गुच्छे!”
सक्रिय एवं गौरवशाली से गौरवशाली जीवन भी उस अवस्था में जाकर कातर और दयनीय हो जाता है, आत्मकरुणा से भर जाता है। अप्रासंगिकता उनमें एक क़िस्म की हठधर्मिता भर देती है। मनुष्य उपयोगिता और सुंदरता के नियम से संचालित होता है। जो अनुपयोगी और असुंदर है, उसे वह अनुष्ठानों में भले याद रखे, दैनन्दिन जीवन में उसे बरबस बरज आता है।
मनुष्य की चेतना अपनी संतान की ओर स्वभाव से ही बहती है, यही प्रकृति का नियम है।
सत्यजित राय की- “पथेर पांचाली” में सोर्बजया बूढ़ी सास इंदिर ठाकरुन को मरण के लिए त्याग देती है।
“अपराजितो” में उसका पुत्र अपूर्ब उसे त्यागकर कलकत्ते चला जाता है, तब वह अकेली मरती है,यही जीवन-नियम है…!
घर में मौजूद बड़े बुज़ुर्गों की सेवा टहल कैसे हो, यह हमारे समाज का एक बड़ा प्रश्न है, किंतु बहुत कम इस पर बात होती है,यह सरल विषय नहीं है, क्योंकि सबको एक ग्लानि से भरता है…।
यह विषय कठिन इसलिए है कि ना केवल मनुज की चेतना अपने और अपने बच्चों की सुख सुविधा की ओर स्वाभाविक रूप से बहती है, बूढ़े बुज़ुर्गों की देखभाल आधुनिक मनुष्य के लिए अब इतनी सरल भी नहीं रह गई है,इसके लिए निष्ठा, करुणा, सेवाभावना की आवश्यकता तो है ही, बड़ा कौशल, धैर्य और परम्परा से मिला सामान्य ज्ञान भी चाहिए।आज किसी की भी तालीम इन बातों को केंद्र में रखकर नहीं होती, पहले के लोग घर परिवार में यह सब सीख जाते थे,आज बुज़ुर्गों की सेवा पेशेवर नर्सों और केयरटेकर के ज़िम्मे है, लेकिन कितने दिन तक
…?
अस्पताल से छुट्टी लेकर कोई कभी तो घर आएगा, तब तजुर्बे से भरी नज़रों से कुटुम्ब के मुखमण्डल पर चली आई अनिच्छा को कैसे छुपाएगा…?
पुरानी दुनिया में ये चीज़ें इतनी कठिन नहीं थीं,अगर आप गांधी जी की आत्मकथा– “सत्य के प्रयोग” पढ़ें तो यह जानकर चकित होंगे कि उन्होंने स्कूल में बाक़ायदा अर्ज़ी देकर मांग की थी कि –“पढ़ाई के बाद जो वर्जिश-क़वायद का सत्र होता है, उससे मुझे मुक्त रखा जाए, मैं उस अवधि में घर जाकर बीमार पिता की सेवा करना चाहता हूँ…”
फिर वर्णन है कि अनुमति मिलने पर कैसे प्रसन्न होकर घर जाते थे,सेवाभावना उनमें स्वभाव से ही थी,इसीलिए चाहे डरबन की कुली बस्ती में फैली महामारी हो, सेगांव का मलेरिया हो, या परचुरे शास्त्री का कुष्ठरोग ही क्यूँ ना हो, वो दत्तचित्त होकर सेवा करते थे।
आत्मकथा में एक अध्याय पुत्र मणिलाल के उपचार पर है, एक बार पत्नी के प्रसव में दाई की भूमिका भी उन्होंने निभाई।जब पिता की मृत्यु हुई, तब विषय-लिप्सा से ग्रस्त होकर उनके समीप नहीं रह सके थे, इस अपराध बोध ने आजीवन उनको छला और उनकी ब्रह्मचर्य सम्बंधी दृष्टि के मूल में वह ग्लानि भी है…!
इटली में कोरोना के संक्रमण से मरने वाले बूढ़ों की करुण कथा पढ़कर सहसा यह सब सोचने लगी भारतीय परम्परा में वानप्रस्थ का विचार है, यह स्वयम् को संसार से विलग कर लेने और मृत्यु के निरंतर अभ्यास का सचेत उद्यम है, मृत्यु तो निश्चित है ही, संसार की उपेक्षा भी अटल है।
जीवन ऊर्जा की गति ही वैसी है कि वह संघर्ष से हट गए लोगों को हाशिये पर कर देती है।इससे जीवन भर संजोया अभिमान और आत्मचेतस आहत भले हो, किंतु वही सत्य है, इसे अंगीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि हम सबको एक दिन उस अवस्था में जाना है…।
फिर भी, यह जानते हुए कि मुझे वैसा उपदेश देने का नैतिक अधिकार नहीं, सबसे यही आग्रह करूँगी कि कोरोना संकट में परिवार के वरिष्ठजनों की इस विपदा से रक्षा कीजिये, स्नेह से भरसक उनकी सेवा कीजिये, और आयु के कारण उनमें चले आए दोषों को विनय से स्वीकार कीजिये…
फिर पीछे अवसर नहीं मिलेगा,जीवन भर के लिए हृदय में शूल रह जाएगा…।।
— रीमा मिश्रा “नव्या”