कविता

जीवन संगिनी

जीवन के लंबे पथ के सहचर को
साथ मिला एक साथी का
मैं भी अनभिज्ञ
वो भी अनभिज्ञ
दोनों अनभिज्ञ बंधे दाम्पत्य के बंधन में इक दूजे से
उसे पुकारे है जग
भार्या, अर्धागिनी, जोरू, वामांगिनी,
प्राणप्रिया, गृहलक्ष्मी, संगिनी, सहचरी, बेगम
और कई नाम है उसके
चाहे कह लो उसको डार्लिंग या फिर मेरी लैला
जीवन के हर पथ पर सहचरी वो मेरी
जहां मैं फिस्लू वो मुझे संभाले
उसके गिरने पर मैं बनूं सहारा उसका
मैं उसके आंसू पोंछू
वो मेरे पोंछे आंसू
जीवन रथ के हम दो पहिए
इक दूजे बिन हम हैं अधूरे
मैं दायां अंग वो मेरा बायां अंग
तभी बनें हम परिपूर्ण है
कभी कड़वाहट कभी मिठास
लिया दोनों का ही रसस्वाद
कभी विरक्ति कभी आसक्ति
उपजे दोनों बारम्बार
पर बंधन कोई ऐसा
जो बांध रहा दोनों को
मैं उसका सहचर
वो सहचरी है मेरी

— ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020