ऑनलाइन : तब और अब
सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने एक डायलॉग किसी फिल्म में बोला था जो इस प्रकार है – “हम जहाँ खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।” सोचो अगर यही डायलॉग समर्थ अभिनेता ए. के. हंगल साहब ने बोला होता तो कैसा लगता..? खैर …बात यह नहीं है, यह तो यूँही परिहास में लिख दिया। हंगल साहब उच्च कोटि के अभिनेता थे, उन्होंने जो डायलॉग बोले हैं वे अमिताभ बच्चन के द्वारा कहने पर निश्चित ही उतने प्रभावशाली ना लगें। सबका अपना एक दायरा होता है, दिशा होती है, लकीर होती है, इसीलिए तो कई लोग लकीर के फकीर होते हैं…! लकीर को लाइन भी कहते हैं और सबकी अपनी-अपनी लाइन होती है। अमिताभ बच्चन ने जिस लाइन की बात कही थी वह ज़मीन से जुड़ी हुई लाइन थी, जिसे वे ज़मीन पर खड़े होकर बोले थे, परंतु ज़माना बदल चुका है, अब तो जिसे देखो वह ऑनलाइन है…! लेकिन यह लाइन वह लाइन नहीं जो बच्चन साहब की थी, यह तो वह लाइन है जिसमें अमिताभ बच्चन खुद कहीं न कहीं ऑनलाइन रहते हैं…और यह लाइन जमीनी नहीं, हवा-हवाई है…!!
बच्चन साहब ही क्या, आजकल तो जिसे देखो वह ऑनलाइन दिखाई पड़ता है…मंत्री से लेकर संत्री तक, बिजनेसमैन से लेकर कॉमनमैन तक, व्यापारी, नेता, अभिनेता, खिलाड़ी, अनाड़ी, जिसे देखो वह ऑनलाइन दिखाई देता है…!! बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कवि, शायर, यत्र-तत्र सर्वत्र ऑनलाइन दिखाई पड़ते हैं…कुछ लोग तो सुबह से लेकर देर रात तक ऑनलाइन दिखाई पड़ते हैं…!! पता नहीं ये लोग नित्यकर्म कब, कैसे, कहाँ करते होंगे..?
हमारे यहाँ जितने भी न्यूज चैनल्स हैं, उन सब पर कुछ चेहरे इतने कामन हैं कि आप जब भी न्यूज देखने बैठो, उन चेहरों में से कोई न कोई, किसी न किसी न्यूज चैनल पर ऑनलाइन डिबेट करता हुआ दिख ही जाएगा…!! उनकी बौद्धिक क्षमता कितनी है, यह तो मुझ जैसा मूढ़ नहीं बता पाएगा पर उनके धैर्य को नमन करने का मन जरूर करता है…!
वास्तविकता में रचनात्मक और साहित्यिक गतिविधियाँ शायद उतनी नहीं होती होगी, जितनी आजकल ऑनलाइन होने लगी है। ऑनलाइन एकल रचना पाठ, ऑनलाइन कवि गोष्ठी, ऑनलाइन कवि सम्मेलन इत्यादि, फेसबुक एवं वाट्सएप पर ग्रुप बनाकर इस तरह की गतिविधियों की धूम मची हुई है। अच्छा है, कम ज कम इसी बहाने रचनात्मक सक्रियता तो बनी रहती है…अपनी वे रचनाएँ जिन्हे कई संपादकों द्वारा “रिजेक्शन” का “सर्टिफिकेट्स” मिल चुका है, उसे रचनाकार ऑनलाइन बेझिझक सुना तो सकता है…जिससे उस रचनाकार के रचनाकर्म में किए गए परिश्रम का पारिश्रमिक स्वयं की मानसिक संतुष्टि के रूप में मिल जाता है…!!
खैर, यह तो एक छोटा सा उदाहरण है…देखा जाए तो क्या नहीं हो रहा है आजकल ऑनलाइन…चैटिंग, डैटिंग, शापिंग से लेकर शादी-ब्याह तक, सब कुछ ऑनलाइन हो रहा है…अब तो मरने पर दाह संस्कार भी ऑनलाइन होने लगा है…!! लब्बेलुआब यह कि आजकल ‘जीवन, मरण, परण, सब कुछ ऑनलाइन होने लगा है…! घर में राशन नहीं है, ऑनलाइन मँगवा लीजिए…अजी राशन को मारो गोली…ऑनलाइन मँगवा भी लो पर पकाना तो पड़ेगा…इसलिए सीधा पका पकाया मँगवाइए…बिल चुकाया, आया, खाया, डकारा और सो गए…!! हाँ यह माना कि ऑनलाइन के द्वारा वर्तमान समय में बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है, दूर देश में रह रहे अपने बच्चों, परिजनों से रूबरू वार्तालाप हो जाता है। माता-पिता, नाते-रिश्तेदारों को चैन व सुकून मिल जाता है। ऑनलाइन आवेदन, ऑनलाइन शिक्षण-प्रशिक्षण, निरिक्षण, साहित्यकारों, कवियों, कलाकारों को एक मंच मिल जाता है। आलोचकों, समीक्षकों द्वारा समय-समय पर मार्गदर्शन मिल जाता है…कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि समीक्षकों, आलोचकों से मार्गदर्शन..? तो भैया इनकी कही बातों को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखोगे तो मार्गदर्शन, अन्यथा मगज घर्षण…!! अपना-अपना नजरिया है…खैर। जरूरतमंदों को अपनी जरूरत का सामान मुहैया हो जाता है।
फास्ट फूड वालों को फास्ट फूड, ड्राय फूड वालों को ड्राय फूड, भोजन की कामना रखने वालों को पका पकाया भोजन…इतना सब कुछ होने के बावजूद भी विश्व भर के वैज्ञानिक अभी वह उपलब्धि हासिल नहीं कर पाए, जहाँ ऑनलाइन के माध्यम से मनुष्य को भूख लगने पर सीधा पेट भर जाए…!! जबकि हमारे ऋषि, मुनि, योगाचार्य सदियों पहले इस उपलब्धि को पा चुके थे। ‘योगकुण्डल्युपनिषद्’ , ‘घेरण्ड संहिता’ और इन जैसी अन्य पुस्तकों में इस विषय पर विस्तार से वर्णन है। ‘खेचरी मुद्रा’ और इस जैसी अन्य क्रियाओं द्वारा हमारे महान ऋषियों, मुनियों, योगाचार्यों, तपस्वियों ने अपने तपोबल और योगबल से जो उपलब्धियाँ प्राप्त की थी वह सब आज भी लिपीबद्ध है, परंतु आज उन्हें क्रियान्वित करने की क्षमता शायद ही किसी में हो…वे योगी अपने योगबल से विभिन्न स्वादों का रसास्वादन कर अपनी क्षुधा शांत कर लिया करते थे, सशरीर तीनो लोकों में भ्रमण कर आते थे, और आज…आजकल तो योग भी ऑनलाइन किया, करवाया जा रहा है…!
आज हमें ऑनलाइन होने के लिए मोबाइल, लेपटॉप, कंम्प्यूटर इत्यादि साधनों की आवश्यकता पड़ती है परंतु उन मनीषियों ने तो अपने तपोबल, योगबल साधना से अपने शरीर को ही ऑनलाइन कर रखा था, जो एक साधारण मनुष्य न तब कर सकता था न अब…क्योंकि योग की यह कठोर साधना अत्यंत दुर्लभ है। परंतु यम, नियम, संयम द्वारा फूल नहीं पाँखुरी तो हासिल की जा सकती है…चाहे ऑनलाइन ही सही…!!
— कमलेश व्यास ‘कमल’
बहुत ही उम्दा सृजन