ग़ज़ल
हर क़दम पर इश्क़ की देती मुझे दावत भी थी।
प्यार करने का उसे पर इक सबब सूरत भी थी।
अब ज़रा फुर्सत नहीं तो किस तरह से हो निबाह,
तब नहीं आया मुझे जब ढेर सी फुर्सत भी थी।
मंज़िलों की थी तलब यूँ साथ हम चलते रहे,
हमको उससे हरक़दमपर यूँ बहुत ज़हमत भी थी।
इश्क़ ने मुझको दिया था ज़ख़्म गहरा इक मगर,
दर्द सहने की मुझे बचपन से कुछ आदत भी थी।
कलतलक उससे बहुत दिलको शिकायत थी हमीद,
ये मगर सच है कि शामिल थोड़ी सी उल्फत भी थी।
— हमीद कानपुरी