शाकाहार
जिस समाज में रह रहा हूँ, हिन्दू भी उतनी है, जितनी मुस्लिम ! हिंदुओं के पवित्र माह ‘सावन’ (श्रावणमास), जिसमें शिवभक्ति चरम पर रहती है और हिन्दू धर्मावलम्बी इस माह माँस, मछली, अंडे, प्याज, लहसुन …. इत्यादि का भक्षण नहीं करते हैं! कुल मिलाकर यही कहना है, मांसाहार वर्जित है, हिंदुओं के लिए इस माह !
इसी सावन माह में (हालाँकि इस्लाम का इस माह का अलग नाम है) मुस्लिमों के कुर्बानी का पर्व ‘ईद – उल – अज़हा’ व ‘ईद – उल – जोहा’ व ‘बक़रीद’ भी है, जिनमें कई चिह्नित मूक प्राणियों की बलि व कुर्बानी दी जाती है और उनमें खास प्राणी है, दुम्मा यानी बकरा ! (जो मेरी जानकारी में है !)
गंग-जमुनी संस्कृति लिए इस देश में सभी को अपने-अपने पर्व मनाने की आज़ादी है, बावजूद एक मानवीय सोच भी उभरता है… एकतरफ शाकाहार पर्व, दूसरी ओर मांसाहार पर्व ! मेरे कई मुस्लिम मित्रों ने इस पर्व पर मुझे अपराह्न समय में उनके घर आने को लेकर आमंत्रित किया!
वैसे मैं शाकाहार का प्रबल समर्थक हूँ, दूजे धर्म-संकट में पड़ गया कि ऐसे प्रसंग में मुझ नास्तिकतावादी में भी यह गृहीत कर गया कि अपने धर्म के साथ रहूँ या वहाँ जाकर धर्मनिरपेक्षता की मिसाल कायम करूँ !
परंतु कुछ क्षण सोचा…. ‘कुर्बानी’ एक प्रतीकार्थ भी हो सकता है ?
हमारे यहाँ दुर्गा पूजा में ‘बलि’ की परंपरा है, किन्तु यह बलि प्रतीकार्थ है, डंठल लगे घिउरा (नैनवा), कद्दू, कुम्हड़ा इत्यादि में सींक के चार पैर लगाकर उसे बकरा बना दिया जाता है और तब इस प्रतीक की बलि दी जाती है यानी शाकाहारी बलि !
चलिए, मैं भी यह क्या लेकर बैठ गया ! सबकी अपनी-अपनी मर्ज़ी और मनुष्य अपनी मर्जियों के गुलाम हैं ! मैं भी, तो आप भी ! किन्तु कल्पना करने से क्या जाता है ? इसी के सापेक्ष जैन धर्म याद आ जाते हैं, जो अहिंसा के प्रवर्त्तक हैं।