सहृदय व सरल हृदयी शास्त्री जी
कद छोटा, किन्तु विचार काफी उच्च ! इसलिए तो ‘शास्त्री’ परीक्षा पास करने के बाद जाति-उपनाम ‘श्रीवास्तव’ को हटाकर ‘शास्त्री’ रख लिये । मन में इच्छा थी, देश-सेवा की, सेना बनकर ! परन्तु कद की ऊँचाई कम होने के कारण सैनिक नहीं बन पाए!
उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत की सरकार में गृह व पुलिस विभाग के मंत्री बने । सैनिक तो नहीं बन सका, किन्तु पुलिस के मंत्री बने । जब पंत जी देश के गृह मंत्री बने, तो शास्त्री जी भी केंद्र की राजनीति में आ गए और पंत जी के निधन के बाद देश के गृह मंत्री बने ।
1962 के चीन-भारत युद्ध में देश की रक्षा के लिए सतत सोचते रहे!
नेहरू जी की मृत्यु के बाद सबसे उम्रदराज मंत्री गुलजारी लाल नंदा देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने, जो नेहरू जी की तेरहवीं तक रहे । इसके बाद शास्त्री जी देश के तीसरे प्रधानमंत्री बने । अपने कार्यकाल में चम्बल के डकैतों को आत्म-समर्पण करवाकर उन्हें समाज के मुख्यधारा से जोड़े ! फिर 1965 में पाकिस्तान को मुँहतोड़ जवाब दिये और इसी क्रम में उन्होंने भारतीय सैनिकों और किसानों के मनोबल को उठाने के लिए ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिए।
किन्तु शास्त्री जी और भी बहुत-कुछ कर पाते कि उनके बढ़ते कदम को रूस (तब सोवियत संघ) और अमरिका की मिलीभगत से रोका गया ।
पाकिस्तान से जीते गए युद्ध को लेकर समझौते के लिए शास्त्री जी पर जोर डाला गया । उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला-फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्री जी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान भी गयी। विकिपीडिया के अनुसार, अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को शास्त्री जी की मृत्यु के बाद पछतावा रही ।
जब समझौता-वार्ता चली तो शास्त्री जी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं, परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं! काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्री जी पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर उनसे हस्ताक्षर करा लिये गये । उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किया कि वे हस्ताक्षर तो जरूर कर रहे हैं, पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधान मन्त्री ही निश्चित लौटा लेंगे, वे नहीं ! पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध-विराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्री जी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं।
शास्त्री जी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरे देश श्रद्धापूर्वक याद करते हैं । उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन के समीप विजय घाट में कई गई । जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री जी के विधिवत उत्तराधिकारी नहीं नियुक्त की, तब तक फिर एकबार यानी दूसरी बार गुलजारी लाल नन्दा फिर 13 दिनों के लिए देश के कार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे।
शास्त्री जी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे हैं। अनेक लोगों का मत है, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं कि शास्त्री जी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं, बल्कि रूस के द्वारा अमेरिका की मिलीभगत से जहर देने से ही हुई, क्योंकि पहली इन्क्वायरी राजनारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी । दीगर की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है । यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्री जी का पोस्टमार्टम भी नहीं हुआ । वर्ष 2009 में जब यह सवाल उठाया गया, तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्री जी के प्राइवेट डॉक्टर आर. एन. चुघ और रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी, परन्तु भारत सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है । बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी, तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी । शास्त्री जी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली । सन 2009 में, जब ‘साउथ एशिया पर CIA की नज़र’ नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना, ‘शास्त्री जी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है । ये तमाम कारण हैं, जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।”
सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक
‘ललिता के आँसू’ में शास्त्री जी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था, तो उस समय यानी 1978 में ललिताजी जीवित थी ।
यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक-पत्रकार स्व. कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्री जी के साथ गये थे, इस घटना-चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है । गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्री जी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी।
लेकिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रहस्यमय मृत्यु की भाँति शास्त्री जी की मृत्यु भी रहस्यमय ही है । अंतर सिर्फ यह है, नेताजी के पार्थिव देह व इनसे सम्बन्धित अन्य कोई चीज अबतक प्राप्त नहीं हो सका है!
भारत रत्न शास्त्री जी की जयंती पर सादर नमन और श्रद्धा सुमन अर्पित है!