कहानी

पत्थरों में प्राण

कल मिनाक्षी अपने शादी की सालगिरह पर बृद्धाश्रम गई । वहाँ बूढ़े बेबस और असहाय बृद्धों को देखकर रोना आ गया। वह तो उन सबसे अपने दाम्पत्य जीवन की खुशहाली के लिए दुआएं बटोरने गई थी, पर दर्द और बेचैनी से भर गई।
खैर; जैसे तैसे उन्हें केक और घर के बने बिरियानी और कोफ्ते खिलाकर लौट आई । घर आकर भी सारा दिन बेचैन रही।
अपनी माँ से फोन पर बात करते हुए बृद्धाश्रम के महिलाओं और पुरूषों की चर्चा की।
माँ बोली “बेटा हर एक का दुख जाकर किसी दिन सुनो, किस कारण से बृद्धाश्रम में जाना पड़ा और मैं भी साथ चलुंगी।
कोई ना कोई उपाय कर उनलोगों का दुख दूर करने का प्रयत्न करुँगी।
अगले सप्ताह मिनाक्षी माँ के साथ वहाँ गई सबके पास बैठकर उनकी समस्याओं को सुनने लगी।
उनमें से अधिकांश के बेटे बहु विदेश में जा बसे थे एवं डोनेशन की राशि साल में एकबार ऑनलाईन बृद्धाश्रम को भेज देते थे। उनकी समस्याओं को सुनकर मिनाक्षी की माँ उन्हें सप्ताह में एक दिन योगा क्लास की व्यवस्था कर दी।
अगले दिन से सभी योगा क्लास में जाने लगे ।
खाली और बेकार बैठे रहने से बेहतर उन्हें ध्यान और प्रणायाम का उपयोग समझ में आया, उनकी निराशा थोड़ी कम होने लगी थी।
मिनाक्षी अपनी माँ शीला जी के साथ और पापा के साथ वहाँ पहुँची सभी ने गर्मजोशी से स्वागत किया।
बेटी तुमने हमें निराशा के भंवर से निकलने बहुत बड़ी मदद की ।
थोड़ी सलाह और दो जिससे हम इस जिंदगी में भी खुश रहना सीख लें।
मिनाक्षी उन्हें मॉल के मालिक से संम्पर्क कर पैकिंग का काम दिलाई।
अब उन्हें फुर्सत ही नहीं थी कि खाली बैठे सोचसोच कर अपना दिल दुखायें।

बृद्धाश्रम में सभी के चेहरे पर सुकून नजर आने लगे ।
सभी आपस में बात करते हुए कहने लगी,खाली दिमाग खुराफात का घर था अब हमारा समय भी बीत जाता है एवं दान के पैसे पर नहीं जीते हैं यह अहसास हमारे आत्मविश्वास को भी बढा रहा है।

उसी वृद्धाश्रम के एक कोने में शुक्ला जी बैठे सूने आकाश की ओर निहार रहे थे।
मिनाक्षी प्रकाश जी और उनकी माँ सभी उनके पास बैठ गये ।
“शुक्ला जी आप अब भी उदास हैं ?” शुक्ला जी बोले; “क्या करुँ चाहकर भी वर्तमान परिस्थितीयों से तालमेल नहीं कर पा रहे हैं। हमारी स्वर्गवाशी पत्नी हमसे वादा ली थी कि किसी भी हाल में घर को जोड़े रखना हमारे तीन बेटे हैं भरापूरा परिवार है पर मुझे कोई अपने साथ नहीं रखना चाहता है।
सब एक दुसरे को कहते हैं कि पापा सिर्फ हमारी जिम्मेदारी नहीं हैं। सोचिये एक बाप अपने चार औलाद का भी पालनपोषन कर लेता है परंतु चार औलाद एक बाप का नहीं कर पाते हैं।”

“बेटे को पढाने लिखाने में मैं अपने कल की चिंता ही नहीं किया शायद इसी वजह से मुझे आज यह दिन देखना पड़ रहा है।
मिनाक्षी के पापा बोले; ” ईश्वर ने चाहा तो एक सप्ताह के अंदर आप पुनः अपने बच्चों के बीच होंगे।”
शुक्ला जी बड़े अचरज से पूछ बैठै ; भला कैसे ?
प्रकाश जी बोले मैं दो पेपर बनाउंगा जिसमें एक हाईवे पर आपके जमीन का होगा । शुक्ला जी बोले ,पर मेरे पास तो कोई जमीन नहीं है ।”
“आप जानते हैं पर बच्चों को झुठ बोलूंगा।”
अगले दिन एक ग्राहक बनकर प्रकाश जी शुक्ला जी के बेटों से मिलने गये।
“आपके पिताजी की हाईवे वाली जमीन मैं खरीदना चाहता हूँ मुझे उनसे मिलना है।”

तीनों बेटे बहू करोड़ों की प्रापर्टी का नाम सुनते ही बृद्धाश्रम दौड़े आये । “बाबुजी आप घर चलिए,आपके पोते पोतीयों ने जिद मचा रखी है कि दादाजी के बिना घर में मन नहीं लगता।”
शुक्ला जी थोड़े नानूकुर के बाद घर आ गये,परंतु उन्हें झुठ बोलने और पकड़े जाने का डर हमेशा लगा रहता था। समय से खाना पीना और बच्चों का प्यार देख उन्होंने झुठ पर पर्दा डाले रखा। शुक्ला जी सुबह चार बजे उठकर पार्क में जाते और आसन प्रणायाम करते।

धीरे धीरे शुक्ला जी के पारिवारिक सहयोग के अभ्यस्त सभी बच्चे हो गये। पोते-पोतियों का होमवर्क बनवाते। धोबी और कामवाली का काम और हिसाब किताब देखते। कभी शाम में सीढीयाँ चढते हुए छत पर से सारे बच्चों के कपड़े ले आते।
इसतरह बच्चों को अपने प्यार और उपस्थिती का अहसास दिलाकर लगभग चार पाँच महीने बाद सण्डे की एक सुबह अपने सभी बच्चों को अपने पास बुलाया । उन्होंने अपना सामान और कपड़े पहले से ही पैक कर रखे थे ।
“बच्चों मैं एक बड़े झुठ के साथ नहीं जी सकता हूँ । हमारी कोई प्रापर्टी नहीं है। हमें तो अपने बच्चे ही हमारी जिंदगी के जमापुंजी लगते थे।
अगर एक निर्धन पिता को तुम सब नहीं पाल सकते तो मैं पुनः बृद्धाश्रम जा रहा हूँ।”
तभी छोटी बहू हाथ से बैग लेकर बोली- “पिताजी आपको कहीं जाने की जरुरत नहीं है। आपके रहते मैं निश्चींत होकर अपनी ड्युटी करती थी गोलू की चिंता नहीं होती थी।”
दोनों बहुएं भी बोली “पिताजी आपके चंद महीनों के प्यार ने हमें खुश रहना सिखा दिया।अब हम देवरानी और जेठानी भी परस्पर सहयोग को समझ गये हैं।अब आप कहीं नहीं जायेंगे।”
शुक्ला जी के आँखों में आँसू आ गये । मिनाक्षी ने थोड़ी सुझबूझ से पत्थरों में प्राण ले आई थी ।
उन्होंने मिनाक्षी का न. मिलाकर सदा सौभाग्वती होने का आशीर्वाद दिया।

— आरती राय

*आरती राय

शैक्षणिक योग्यता--गृहणी जन्मतिथि - 11दिसंबर लेखन की विधाएँ - लघुकथा, कहानियाँ ,कवितायें प्रकाशित पुस्तकें - लघुत्तम महत्तम...लघुकथा संकलन . प्रकाशित दर्पण कथा संग्रह पुरस्कार/सम्मान - आकाशवाणी दरभंगा से कहानी का प्रसारण डाक का सम्पूर्ण पता - आरती राय कृष्णा पूरी .बरहेता रोड . लहेरियासराय जेल के पास जिला ...दरभंगा बिहार . Mo-9430350863 . ईमेल - arti.roy1112@gmail.com