गीतिका/ग़ज़ल

नज़्म

शब्द रुठे है आज मुझसे कहो मनाऊँ कैसे,
गहने अहसास के मिसरे को पहनाऊँ कैसे।
हारी हूँ जमाने के दर्द ओ सितम के आगे,
गीत मिलन के  सूर में मैं  गुनगुनाऊं कैसे।
दिल में ना  अरमान  है ना ही  चाह कोई,
ये नशा  हंसी का नैंनों को  पिलाऊँ कैसे।
लकीरों से उठता है बदनसीबी का धुँआं,
कोहरा ये हरसू छाया है इसे हटाऊँ कैसे।
यादों के नश्तर में चूर रात बिते करवटों में,
नैंनों को ख़्वाबों का लिबास पहनाऊँ कैसे।
ठहर गई मेरी ज़िंदगी एक हसीन मोड़ पर,
देती है सदा  हाथ थामें मैं राहें  पाऊँ कैसे।
पतझड़ का पंछी बेबस  हर झील सूख गई,
बसंत को तरसे मन तप्त रेत से नहाऊँ कैसे।
मौसम  बित गए  बहारें बह गई जाने कहाँ,
मरुस्थल पल-पल  बहकाते ललचाऊँ कैसे।
बहुत  सहारे बेकल बननेको मेरे हमसफ़र,
अरमाँ  है लाचार नया जीवन रचाऊँ कैसे॥
— भावना ठाकर

*भावना ठाकर

बेंगलोर