कविता

मानवता के फूल

एक-एक मानव जुड़कर बना यह प्यारा समाज,
मिले वो सारे मानव हित के संरक्षण वरदान,
फिर भी क्यों चंद पैसों के आगे बिक जाते ये सारे अधिकार?!
क्या दिन आ गए कभी साथ चलते थे,
 कभी साथ खेलते…..
 अब अपने ही लोग अपनों को है छोड़ते।।
अधिकार हनन की बात करने वाले,
अब स्वयं ही कानून को तोड़ते,
भ्रष्टाचार की रोटी से पेट है पालते।।
शर्म आती है ऐसी सोचो पर जो पनपते है,
घिन्न आती है ऐसे लोगों पर जो इसे चुपचाप सुनते है,
अधिकार होते हुए भी गुलामी सहते है।।
करने जाओ अच्छा तो स्वयं ही बन जाते है बुरे,
इनके आँखों पर स्वार्थ के पर्दे को क्या कोई नहीं हटा सकता?
रक्षक बने भक्षक इंसान बनना तक भूल चुके है।।
कुछ करो नहीं तो चुप बैठो,
पर उन्हें तो करने दो जो कुछ अच्छा करना चाहते है,
मानव अधिकार के लिए जो आज भी लड़ते हैं।।
छोड़ो क्या बोलू अब तो कलम भी सोचते है,
कितना चलेंगे ये स्याही …..
पर खत्म नहीं होगी ये मानव संरक्षण की तबाही।।
लोग अब एक- दूसरे से करने लगे है नफ़रत,
आज कोई और तो कल ना जाने कौन सी आयेगी आफ़त,
इंसान, इंसान ही के बन बैठे है दुश्मन।।
समझाओ इन्हें जितना उतना ही कम है,
अभी भी वक़्त है…..
इनकी गलत सोचो में कुछ करके दिखाओ यही बहुत है।।
ना हो कोई पाबंदी मिले संरक्षण की गारंटी,
है सर्वांग अधिकार सबका,
प्राकृत हो चाहे हो व्यवस्था।।
बने एक अच्छे नागरिक इस समाज के,
करे सबकी मदद निस्वार्थ भाव से,
खिले मानवता के फूल प्यार से,
खिले मानवता के फूल प्यार से!…
— सरिता श्रीवास्तव

सरिता श्रीवास्तव

जिला- बर्धमान प्रदेश- आसनसोल, पश्चिम बंगाल