कविता

कोरोना

पिछ्ले साल से कोरोना ने मचा दिया है हा-हाकार
मानव अब न हाथ मिलाते हैं और न गले लगने को है तैयार
दो फिट की दूरी से बातें करने लगते हैं
अस्पतालों में न कोई भाई हैं न बंधु , अकेलेपन में काट रहे हैं सफर
अब हर घंटे पर साबुन से , हाथ धोना हो गया है जरुरी
कोरोना से बचाव रखना है तो , कर्फ्यू हो गया है जरुरी
हे मानव अब अपना लो अपनी प्राचीन संस्कृति को
जब भी छींको -खांसो तुम , मुंह को ढकना है जरुरी
वृक्ष काटकर पह्चान गये मोल इन सांसों का
अब सिमिट रहा है प्रसार मानवता का
परिवेश में हो रही ऑक्सीजन की मारा- मारी
और ऑक्सीजन ने ही हमारी सांसों को है रोका

— कल्पना गौतम

 

कल्पना गौतम

उत्तर प्रदेश की निवासी हैं। हिन्दी में पीएचडी कर रही हैं।