ग़ज़ल
श्मशान की लकड़ियों पर बेईमान आदमी।
अपने ही कटवाता ख़ुद कान आदमी।।
लाशों को ढोने के मनमाने दाम ले,
जिंदों का माँस नोंचता शैतान आदमी।
मौसम्बी, नीबू , संतरे अदृश्य कर दिए,
दिन – रात लूट में मग्न हैवान आदमी ।
आपदा को दाम में बदले हुए है जो,
दो पैर काली बुद्धि की पहचान आदमी।
मज़हब की खा सौगंध दुर्गंध फेंकता,
माथे के टीके की दिखाता शान आदमी।
गीत देश गान के बोल वंदे मातरम,
पापों की टकसाल है या खान आदमी।
‘शुभम’ आज देख तो बंगाल – हाल क्या,
खो दे न कहीं अपनी ही पहचान आदमी।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’