ग़ज़ल
आके ख़्वाबों में सताते हैं, चले जाते हैं।
रोज़ यूँ नींद उड़ाते हैं, चले जाते हैैं।
सोचकर क्या वे हमीं से हमारी बातों को,
रोज़ हमसे ही छिपाते हैं, चले जाते हैं।
कुछ यहां ऐसे फरिश्तें हैं जो गैरों के लिए,
जान, तन अपना लुटाते हैं, चले जाते हैं।
और कितने बचे हैं दिन हमारे मिलने में,
हंँस के उंँगली पे गिनाते हैं, चले जाते हैं।
चाँद से छिपके सितारे सभी छत पे मेरी,
चाँदनी रात बिताते हैं, चले जाते हैं।
शेर अब जय की ग़ज़ल के ख़तों में आ आके,
प्रीत के किस्से सुनाते हैं, चले जाते हैं।
— जयकृष्ण चाँडक ‘जय’