जाने कितने दिनों के बाद वह हिम्मत जुटाकर चाँदनी रात में उसी नदी के कछार पर पैर लटकाए बैठी है जहाँ वह पिछले वर्ष भर जाने कितनी बार अपने प्रेमी के कंधे पर सर टिकाए आसमान में उगे चाँद पर आशियाँ बनाने के सपने देखा करती थी। बड़े बूढ़ों की नसीहतों का अर्थ चोट खाने के बाद समझ में आया, “जो लड़कियाँ विधर्मियों से, बेमेल खानपान या संस्कृति वालों से या फिर अधिक उम्र वाले लड़कों के साथ अपने परिवार वालों से विद्रोह कर या भागकर शादी करना चाहती हैं, वे कभी सुखी नहीं रहतीं। लड़कियों को आर्थिक रूप से स्वतंत्र, खानपान और संस्कृति मिलाकर, पारिवारिक आधार पड़ताल करके ही घर बसाना चाहिए।”
वह भी एक ऐसी ही चाँदनी रात थी। वह घर से गहने, कपड़े-लत्ते, पैसे समेट कर आधी रात के बाद सरक आई थी और यहीं उसका इंतजार कर रही थी। बहती ठंडी हवाओं के कारण लघुशंका निवृत्त होने वह अपने सीमित सामान सहित घनी झाड़ियों के पीछे चली गई। तभी वह आता दिखा। मन ही मन प्रसन्न होते कुछ देर गायब रह कर उसकी फिरकी लेने की सोच अपने मोबाइल की घंटी भी बंद कर दी, “देखे जरा, वह उसे कितना प्यार करता है?” वह झाड़ियों के पीछे दुबकी रही।
उसके इंतजार में हैरान-परेशान वह बार-बार उसका नंबर डायल करता रहा। जवाब नहीं मिला, तो तनाव में बड़बड़ाने लगा, “कहाँ रह गई, साली? अता पता नहीं है। मैंने उसकी डील भी पक्की कर दी थी। कुछ देर और नहीं पहुँची तो मुंबई जाने वाली रात्रि बस छूट जाएगी।” तभी उसके फोन की घंटी बजने लगी।
“मैं भी क्या करूँ? चिड़िया अभी तक दिखाई नहीं पड़ रही, मौसी! लगता है फुर्र हो गई। मैंने उसे जो वक्त दिया था, घंटेभर ज्यादा हो चुका है। ये लड़कियाँ भी न, इतने पैसे खर्च करो, घुमाओ फिराओ और जब हलाल करने का वक्त आता है तो इनकी मातृ-पितृ भक्ति उमड़ने लगती है”, पुनः एक गाली।
निशाचर जीव जंतुओं का डर तो था, पर इस दोपाया जीव के डर से वह काँप गई। उसके पैर झाड़ियों के पीछे जम गए।
वह देर तक इंतजार करता रहा, बेचैनी में इधर-उधर फोन करता रहा, फिर थकहार लौट गया। उसके जाते ही वह निकलकर घर की ओर सरपट भागी।
माता-पिता को सब सच बताकर पुलिस में रपट लिखाई। छानबीन के बाद जब उसकी गिरफ्तारी हो गई, तो आज डरते-डरते पुन: नदी के कछार पर आ बैठी, ताकि अपनी नादानियों पर विचार कर भविष्य की सोच सके।
— नीना सिन्हा