हुस्न की किताब
जब भी आता हूं इश्क़ की किताब लेकर ।
तुम बैठी रहती हो हुस्न की किताब लेकर ।।
ये अजीब महक है उभरती हुई यौवन की ,
छलकती पैमाना नजरों में सैलाब लेकर ।
लगता है जिस्म शरबत ए जाम से नहाई है ,
तुम बैठी हो जैसे मदिरा की तालाब लेकर ।
शमां की आगोश में परवाना मदहोश हो जाए ,
तशरीफ में बैठी हो तुम हुस्न की शराब लेकर ।
ऐसी नशा दुनिया की कोई मधुशाला में नहीं ,
नजरों से दो घूँट पी लें जो तेरी ख़्वाब लेकर ।
जब भी आता हूँ इश्क़ की किताब लेकर ।
तुम बैठी रहती हो हुस्न की किताब लेकर ।।
— मनोज शाह ‘मानस’