ग़ज़ल
बताती बैर जो करना,भला कैसी सियासत है।
सिखाती रोज़ जो लड़ना,भला कैसी सियासत है।
ग़रीबों के मसीहा हैं , मगर है सूट लाखों का,
नहीं कुछ चाहते करना,भला कैसी सियासत है।
दिखाये थे हमें कल जो, नहीं पूरा किया उनको,
हमारा तोड़ती सपना , भला कैसी सियासत हैे।
गले से जो लगाता है , करो उपहास क्यों उसका,
न फूटा प्रेम का झरना, भला कैसी सियासत है।
हिमायत चाहते सबसे , नफा देते मगर कुछ को,
दिखे कोई अगर अपना , भला कैसी सियासत है।
डराने के लिये सब को,रिझाने के लिये कुछ को,
कराती बे सबब गणना,भला कैसी सियासत है।
— हमीद कानपुरी