कविता

पनघट

आधुनिकता की भेंट चढ़
कुँओ का अस्तित्व मिट सा गया है,
फिर भला पनघट बचा रहता
ऐसा संभव कहाँ है।
पहले के समय में कुँओं का जल
दैनिक उपयोग में आता था,
सिंचाई के लिए खेतों को पानी
कुँओं के सहारे ही मिल पाता था,
तब कुँओं से हम सबका
अहम रिश्ता नाता था।
कुँओं पर चौड़े चौड़े
मुंडेर बनते थे,
जिस पर बैठ कपड़ें धोने के अलावा
जाने कितनी बैठकें, गप्पबाजियां
वार्तालाप, गाँव भर के
हाल हवाल होते थे।
तब कुँओं का अपना भी महत्व था
कुँओं और उसके पास
सफाई पर विशेष ध्यान था।
शादियों के अवसर
कुँआ घुमाने की रस्में होती थी,
समय विशेष पर कुँओं की भी
पूजा तक होती थी,
समय के साथ ही ये रस्म
महज औपचारिक होकर रह गई।
कुँओं का अस्तित्व मिटता गया
आधुनिकता के फेर में
कुँओं का अस्तित्व भी
महज किताबी बनकर रह गया,
नयी पीढ़ी के लिए कुँआ
किसी अजूबे सा हो गया।
कुँओं की तो अब चर्चा भी नहीं होती
कुँओं को भरकर कब्जा करने
उनका अस्तित्व मिटाने की
जैसे होड़ सी मची हुई।
अपनी पुरातन स्मृतियों को
हम मिटाने पर तुले हैं,
बड़े गर्व से खुद को
आधुनिक बनाने में लगे हैं।
तब भला विचार कीजिये
जब कुँए ही हमें नहीं सुहाते,
तब पनघट भी तो भला
इतिहास बनने से कैसे बच पाते।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921