लघुकथा

जनता के सेवक

 जनता के सेवक
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“माननीय नेताजी ! क्या कहूँ उस सिरफिरे पत्रकार से ? किसी भी तरह से टलने का नाम ही नहीं ले रहा। कह रहा है आप हमारे प्रतिनिधि हैं तो आपको हमारे सवालों का जवाब देना ही होगा।” नेताजी के मुख्य सचिव ने कहा।
“हूँ… एक काम करो। उसे अंदर भेज दो। आज उसे इंटरव्यू दे ही देते हैं।”
“जी ठीक है..लेकिन वह बड़ा शातिर पत्रकार है, ध्यान रखिएगा।”
कुछ देर बाद पत्रकार अपनी टीम के साथ नेताजी के कक्ष में पहुँचा। कैमेरा व माइक वगैरह की उचित सेटिंग के मध्य ही नेताजी कुनमुनाये, ” पत्रकार महोदय ! जो करना है जल्दी कीजिए। अधिक समय नहीं है हमारे पास.. हम….!”
“ओह, अच्छा !.. शायद इसी व्यस्तता की वजह से आपको नौ महीनों से धरना प्रदर्शन कर रहे किसानों से सीधे बात करने की फुर्सत नहीं मिली…?” नेताजी की बात बीच में ही काटकर पत्रकार ने व्यंग्य बाण चलाए।
“आप गलत बोल रहे हैं पत्रकार महोदय ! हम और हमारी सरकार रात दिन किसानों के हित के लिए काम कर रही है। हम उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए कृतसंकल्प हैं।” नेताजी हल्का सा रोष प्रकट करते हुए बोले। कुछ पल रुककर वह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, “और आप जिन किसानों की बात कर रहे हैं, वह क्या सच में किसान हैं ?”
“जी महोदय ! सही कहा आपने, ..सच में इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह सभी किसान ही हैं, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि सभी नेता वाकई जनता के सेवक हैं ?”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।