मन ने कभी मेरा कहना न माना
सदा गैर ही मुझे अपना जाना
मैं उड़ना चाहता हूँ स्वच्छंद आकाश में
अच्छा लगता है उसे कीचड़ में बिठाना
मैं चाहूँ सुबास केसर की
दिया मलिनता का बाना
नकारत्मता की ओर खींचता
मेरा अस्तित्व डगमगा देने के लिए
मेरा दुसरा मन बांध रखता मुझे
सकारात्मकता की ओर
तभी तो केसर की खुशबू
स्वच्छंद उड़ान
ले जाती है दूर तक
कर पाता हूँ सागर पार
मुट्ठी में बांध लेता हूँ आकाश
सफलता की तितलियां
मंडराती है मंजिल तक
बेफिक्र हूँ निर्भय हूँ
मन ने कभी मेरा कहना न माना
सदा गैर ही मुझे अपना जाना
— शिव सन्याल