गज़ल
खुदगर्ज़ी के बोझ तले रिश्तों को पिसते देखा है
हमने हंसती आँखों से अश्कों को रिसते देखा है
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दिल में जो छुप के रहती है दिन भर दुनिया के डर से
रात को हमने उस ख्वाहिश को नींद में चलते देखा है
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चीख रहे सन्नाटों ने और रोती हुई तन्हाइयों ने
दर्द को अक्सर खामोशी के पीछे छिपते देखा है
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भरोसे और वफादारी जैसे नायाब असूलों को
भूख की आग में सूखे तिनकों जैसे जलते देखा है
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तुम ही बताओ कैसे कह दें हम पैसे को हाथ की मैल
जब इसकी खातिर भाई को भाई से लड़ते देखा है
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पता झूठ से जब सच्चाई का पूछा तो वो बोला
सड़कों पर कशकोल लिए कई बार भटकते देखा है
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।