इस उतरती सांझ में
चलो इस उतरती सांझ में
पहाड़ की गोद में बैठ कर
सिंदूरी धूप को शिखर चूमते हुए देखें ।
चलो इस उतरती सांझ में
दरिया के किनारे बैठ कर
उछलती गिरती लहरों को तट चूमते हुए देखें ।
चलो इस उतरती सांझ में
किसी पेड़ के नीचे बैठकर
नीड़ की ओर लौटते पंछियों का नर्तन देखें ।
चलो इस उतरती सांझ में
किसी पगडंडी पर बैठकर
थके-हारे बटोही को घर लौटते हुए देखें
चलो इस उतरती सांझ में
किसी उपवन में बैठकर
भंवरों को पंखुड़ियों पर प्रणय-गीत लिखते हुए देखें।
चलो इस उतरती सांझ में
किसी चूल्हे के पास बैठकर
आग की गर्माहट में मुहब्बतें पकती हुई देखें ।
चलो इस उतरती सांझ में
प्रियतम की गोद में सिर रखकर हवा को
जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते हुए देखें ।
चलो इस उतरती सांझ में
कलम को कागज के हृदय पर सबके लिए
इबादत की नज्में लिखते हुए देखें ।
जीवन उत्सव …
रोज सुबह सूरज निकलता है
हर शाम ढल जाता है
आज फिर बीते कल में
बदल जाता है ।
इसलिए हर रोज
कुछ हिसाब रखा करो
जिसपे खुशियों के पल
लिख सको
अपने पास ऐसी किताब
रखा करो ।।
झेलते हुए लू-घाम – शीत
अंधेरों उजालों के सीने पर
उकेरते हुए प्रगति – गीत
शिखरों पर चढ़ा करो
नित आगे बढ़ा करो ।
दुर्दम्य आकांक्षाओं का
पीछा छोड़ कर
संतोष के बिखरे टुकड़े जोड़कर
सपने गढ़ा करो
नश्वर इस संसार की
क्षणभंगुरता पढ़ा करो ।
झरते हुए फूल गिरते हुए पत्ते
वसंत के आने की
आहट होते हैं
कभी इन्हें देखकर
शोकगीत मत गाया करो
ऐसे मौसम में
वसंतोत्सव की तैयारी में
जुट जाया करो ।
निराशाओं के गहरे भंवर भी
आशाओं के दीप से
उजियाया करो
गम सारे भुलाकर
हंसा करो मुस्कुराया करो ।
बादलों संग उड़ा करो
हवाओं संग गुनगुनाया करो
एक तरफ फैंक कर सब झमेले
लुत्फ़ मेले का उठाया करो ।
सब यहीं छूट जाएगा
यह सोचकर मन समझाया करो
जीवन एक उत्सव है
इसे उत्सव की तरह मनाया करो …।।
— अशोक दर्द