मौत का भय
युद्ध के दौरान भारतीय छात्रों के वतन वापसी का सिलसिला जारी था । दीनानाथ जी भी बेसब्री से उस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे,आखिर वह घड़ी आ ही गई । विराज भी वापस घर लौट आया था । पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ पड़ी ।
ऐसा कुछ था जो दीनानाथ जी के सिवा कोई और देख नहीं पा रहा था । रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, लेकिन विराज सोया नहीं था । उसके कमरे की ओर उनके कदम स्वतः उठ गये ।
“क्या बात है बेटे तुम सोये नहीं हो अभी तक ?”
“दादू मुझे माफ कर दिजिये मैं पिछले आठ सालों से आप सबको नहीं बल्कि खुद को छलता रहा । मुझे एन एफ टी ( नॉट फिट ) मिल चुका है, फिर भी मैं अपने शर्म एवं ग्लानि को छूपाने के लिए पढ़ाई के दवाव के बहाने बनाता रहा, एवं आपलोगों को छलता रहा ।”
“क्या…! क्या कहना चाहते हो ?”
“दादू मैं सैकेण्ड ईयर आज तक क्लियर नहीं कर पाया ।”
“मैं विदेश में आपके पैसों से बस दिन काट रहा था । किताबों में दिनरात घुसा रहता था, फिर भी जीने की कला नहीं सीख पाया । मौत के भय ने मुझे जीना सिखा दिया ।”
दीनानाथ जी बिना कुछ कहे उसे गले लगा लिये ।
— आरती रॉय