लघुकथा

चश्मा

सुबह सुबह कैलाश जी ने अखबार पढ़ने के लिए चश्मा उठाया तो देखा चश्मा टूटा पड़ा है उन्होंने अपने पोते को आवाज लगाई वह दौड़ कर दादाजी के पास आया “क्या बात है दादाजी जी मुझे क्यों बुला रहे हैं” कैलाश जी चश्मा दिखाते हुए कहा “मेरा चश्मा टूटा गया है अब मैं अखबार कैसे पढूं! ऐसा कर इसे अपने पापा को दे दो वो ठीक करवा कर लें आएगा” मोनु चश्मा लेकर सतीश के पास गया “पापा दादाजी का चश्मा टूटा गया है उन्होंने कहा कि आप चश्मा बनवा कर ले आए” सतीश ने झुंझलाकर कर कहा “पिताजी भी बस बैठे बैठे खर्चा बढ़ाते रहते हैं, अपना समान संभालकर रखते भी नहीं उनसे कहना अगले हफ्ते ही हो पाएगा” मोनु कैलाश जी के पास गया “पापा कह रहे हैं चश्मा अगले हफ्ते ही बन पाएगा अभी पैसे नहीं हैं” टूटा चश्मा कैलाश जी को थमा कर चला गया वो टूटा चश्मा पकड़ कर सोचने लगे अब मैं पढूंगा कैसे ! एक पढ़ाई ही है जिससे वो अपना अकेलापन काटते हैं चश्मा पकड़े वो कहीं अतीत में कहीं खो गए। सतीश जब बारहवीं में था क्रिकेट खेलने के दौरान उसका चश्मा टूटा गया रात को जब कैलाश जी टूर से लौट कर आए

तो सतीश अपना टूटा चश्मा दिखाते हुए कहा “कल मेरा पेपर है और चश्मा टूट गया मैं अब पेपर कैसे दूंगा” “कोई बात नहीं मैं अभी चश्मा बनवाकर लाता हूं” “मगर अभी सब दूकान बंद हो गया होगा अभी रात के ग्यारह बज रहे हैं।” “कोई बात नहीं मेरे मित्र की दुकान है मैं वहां से बनवा कर अभी आता हूं”। उसी वक्त उन्होंने अपने मित्र की दूकान से चश्मा बनवा कर ले आए।
टूटा चश्मा हाथ में पकड़े हुए वो सोचते रहे आज मेरा बेटा इतना पैसा कमा रहा मगर पिता के चश्मे के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं।
— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P