कुछ भला
कई दिनों बाद मिला फुर्सत,
सोचा करूं कुछ क्यों ना बेहतर,
कर आऊँ कुछ गरीबों को दान,
ऐसा बहुत कुछ है सामान,
सबसे पहले खोला अलमारी,
सोचा करे कहां से तैयारी,
जो नहीं पहना है बरसों से,
बाँट आऊँ उसे गरीबों में,
कपड़े थे सारे बड़े बेतरतीब,
चिंता में पड़ गई बड़े अजीब,
करूं कहां से शुरुआत,
समझ नहीं आता है कई बार,
ऊपर सेल्फ के उतारे कपड़े,
यादों की फिर बारात निकल पड़े,
वह लाल कुर्ती भुरा पजामा
गई थी शादी में तब दिए थे मामा,
वह है उनकी प्यारी निशानी,
मंजूर नहीं उसे हटानी,
फिर सफेद, गुलाबी, नीली
कोने में पड़ी हुई थी पीली,
सबसे जुड़ी थी कुछ ना कुछ यादें,
उमड़ आई सारी जज़बातें,
नहीं पहनती उनको बेशक,
उन कपड़ों पर बस मेरा ही है हक,
भले मुझे वह नहीं पसंद,
दे दूं कैसे टूटेगा उनका मन,
हो गई सुबह से दोपहर,
कर नहीं पाए कुछ भी बेहतर,
इसमें ही रह गई मैं डूबी
मुझ में क्या कुछ नहीं है खूबी
किस मोह में हूं उलझी?
फिर निकाले कुछ कपड़े,
जो अपनी तनख्वाह से थे खरीदें,
जरूरतमंदों को उसे दे आई,
कुछ भला काम मैं भी कर आयी,
कुछ भला काम मैं भी कर आयी|
— सविता सिंह मीरा